SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ मेरे दिवंगत मित्रो के कुछ पत्र बहुत क्लिष्ट पाठय हो रही थी । मैंने उस प्रतिलिपि की बड़ी कठिनता के साथ स्वय अपने हाथ मे दूसरी प्रतिलिपि तैयार की और उसे बम्बई के प्रसिद्ध निर्णय सागर प्रेस मे छपने को दे दी । श्री राहुलजी के रूस मे चले जाने से उसके प्रकाशन का कार्य दहत समय तक एका रहा। रूस से वापस आने पर वे अपने अन्यान्य साहित्यिक कार्यों में व्यस्त रहे। कभी कभी उनसे मुलाकात हो जाती थी। अन्त मे वे मसूरी जाकर बस गये थे ओर वही पर अपना शेप जीवन व्यतीत करने लगे। उनका आखिरी पत्र सन् १९५० मे मसूरी से लिखा हुआ मुझे मिला । ___मैं उन दिनो बम्बई के भारतीय विद्या भवन में अधिक न रहकर राजस्थान के प्राच्यविद्या सशोधन मन्दिर के निर्माण कार्य में व्यस्त रहने लगा। बाद में फिर उनसे न कभी मिलना ही हुआ और न कोई पत्र व्यवहार ही हुआ। उनका संपादित उक्त विनय सूत्र मूलरूप मे छपकर तो पूरा हो गया था परन्तु उसका प्रास्ताविक आलेख न वे लिख कर भेज सके और न मैं ही इसको यथायोग्य रूप में प्रकाशित करने का अवसर प्राप्त कर सका । विना ही किसी प्रास्ताविक अलकरण के सिंघी जैन ग्रन्थ माला के ग्रन्थांक ५० के • रूप मे सन् १९६० मे इसे मैंने प्रकट कर दिया। साहित्यिक कार्यो की दृष्टि से मुझे अपने जीवन में देश और विदेश के अनेक विद्वानो से संपर्क करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनमें से अनेको के साथ पत्र व्यवहार भी होता रहा। विद्वानों के पत्रो का संग्रह रखने की अज्ञात रूप से ही मेरी कुछ वृत्ति बन गई थी, परन्तु मेरा रहने का कोई निश्चित स्थान कभी नही बना । मै सदा इधर-उधर अनेक स्थानो मे जा-जा कर कार्य करता रहा । इसलिये इच्छा के रहते भी ऐसे सभी पत्रो को मैं सुरक्षित नही रख सका तथापि कुछ विशिष्ठ व्यक्तियो के पत्रो को सभाल कर रखने का मेरा लक्ष्य सदा बना रहा।
SR No.010613
Book TitleMere Divangat Mitro ke Kuch Patra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1972
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy