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________________ - अधिकांश लोगो की मन के प्रति वडी ही शिकायत होती है। वे कहते हैं मन वडा तग करता है । जब भी साधना करने बैठते हैं तो यह इधर उधर भागने लगता है। फिर ऐसी साधना से क्या लाभ ? ठीक है मन भागता अवश्य है, परन्तु वापिस भी तो वह स्वय ही आ जाता है कुछ काल पश्चात् । मन चला गया कोई बात नही, शरीर पर तो आप अपना नियत्रण रखिए। उसको अवश्य ही स्थिर आसन से बैठाए रखिए। यह भी एक वहुत बडे लाभ का काम है। जरा विचार कीजिए, मन चला गया विषयो की ओर, मन ने शरीर को भी उस ओर ही गतिशील होने के लिए प्रेरित किया। पर आपने शरीर तो रोके रखा, यह समझ कर कि विषयो की ओर प्रवृत्त होना ठीक नही है । यह तो गलत काम है । नही करना है । इस प्रकार के शरीर नियत्रण से आप बडे अधकार मे जाने से बच गए। एक प्रश्न और है कि आपके तन को विषयो से किसने रोका ? यह रोकने वाला भागा हुआ मन ही तो था। जो भाग तो गया, पर इसने झट वापिस आकर शरीर को जाने से रोक दिया। इस प्रकार तन की स्थिरता मन को कुछ समय पश्चात् अवश्य ही वापिस ले आती है। इसलिए साधक को निश्चित होकर तन-मन की स्थिरता को बनाए रखते हुए साधना के क्षेत्र मे अविराम गतिशील रहना चाहिये। चिन्तन-कण | ३७
SR No.010612
Book TitleChintan Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Umeshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1975
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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