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________________ 0 प्रज्ञा का जन्म अह से नही, प्रेम से होता है। प्रेम न राग है, न विराग । वह हृदय का परम सहज भाव है। प्रेम आनन्द के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता है। प्रेम न तो कष्ट जानता है और न भार । वह तो आनन्दरस का निर्मल निर्झर है । आनन्द के अतिरिक्त उसकी अन्य कोई अनुभूति ही नही है । भीतर ही खोजिए, प्रेम का परमात्मा वहाँ सदा उपस्थित है। प्रेम को तलाशिए। शेष सब उसके पीछे स्वय चला आता है। प्रेम के दो शत्रु है राग और विराग । इन दोनो से उपराम हुए चित्त मे प्रेम का जन्म होता है। प्रेम मानव जीवन की शाश्वत प्रवृत्ति है। प्रेम शून्य को भी पढ लेता है। प्रेम को शब्दो मे लिखने का प्रयास व्यर्थ है। क्योकि वह शब्दो मे नही समाता है। प्रेम नि शब्द है। प्रेम एक सहज नैसर्गिक अनुभूति है । जो निस्सीम है । भूमा है । चिन्तन-कण | ११
SR No.010612
Book TitleChintan Kan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Umeshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1975
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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