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________________ प्रेरणा से किया जाता है वह पश्चात्ताप है और जो गुरु की साक्षी एव श्राज्ञा से किया जाए वह प्रायश्चित है । यद्यपि शुद्धीकरण की दृष्टि से आप अपने मकान, दुकान, उद्यान, श्मशान यादि में भी पश्चात्ताप एव प्रायश्चित्त कर सकते है, तथापि किसी ज्ञानी गंभीर प्राचार्य के सामने प्रायश्चित करने की अधिक महत्ता है । ऐसा करने से वह दोप शीघ्र ही दूर हो जाता है । कारण कि किसी के सामने श्रालोचना करने से दोप की निवृत्ति वलपूर्वक होती है, जैसे किसी ने किसी की निन्दा की और उसी से जाकर कहना "मैंने श्राज आपकी निन्दा की थी, मैने यह अपराध किया था यह कहना कठिन है । अपेक्षा इसके कि घर मे बैठकर विचार किया जाए, “ग्राज मैंने अमुक की निन्दा करके बहुत बुरा किया है ।" · एकान्त मे बैठे-बैठे पश्चात्ताप करना निन्दना है । जिसका अपराध किया है, उसके सामने अपनी भूल मानना और क्षमा याचना करना गर्हणा है । जिस दोष या पाप का संबंध केवल श्रपने से है, दूसरे से नही, उसको किसी अनुभवशील ज्ञानी के सामने प्रकट करना आलोचना है । वैसा फिर न करना सच्चा प्रायश्चित्त है । जिस अपराधी के मन मे दोष या पाप के प्रति पश्चात्ताप नही होता, वह कभी प्रायश्चित्त करने के लिए तैयार नही होता । प्रायश्चित्त की तीन सीढिया है - श्रात्मग्लानि, दूसरी वार पाप न करने का निश्चय और श्रात्म शुद्धि । ससार मे सभी को वह व्यक्ति अधिक प्रिय लगता है जो करता है, कहता नही । जो कहता तो है, किन्तु करता नही, वह सबको अप्रिय लगता है । अत कहना और न करना इस रीति को छोड़कर करना और न कहना, इसी मार्ग को अपनाना चाहिए । पाप की पहचान ही मुक्ति-मार्ग का पहला पडाव है । जव योग एक चिन्तन ] [ २०१.
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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