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________________ माधुर्य हो स्वमत और परमत का ज्ञान हो, मानवता की पहचान हो, मन मे विरक्ति हो, जिनवाणी पर अटल श्रद्धा हो और विनीत एव निर्लोभी हो वही वक्ता धर्मकथा से जनता को प्रभावित कर सकता है, धर्म-प्रभावना से जीव अपना भविष्य उज्ज्वल करता है । धर्मकथा करना भी स्वाध्याय है । निरन्तर किये जाने वाले स्वाध्याय से धर्म ध्यान की ओर प्रवृत्ति बढती जाती है । यह स्मरणीय है कि धर्मोपदेश देने से वक्ता का भी कल्याण होता है और वह जनता का भी कल्याण करता है । धर्म- ध्यान की अनुप्रेक्षाएं अनुप्रेक्षा का अर्थ है परिचित श्रीर स्थिर विपय का निरन्तर चिन्तन करना अथवा कुछ विस्मृत हुए सूत्र और ग्रर्थ को स्मरण मे लाने के लिये वारवार मनोयोग देना, अथवा एकत्व, श्रनित्यत्व, अगरणत्व और ससारत्व की भावना जगाने के लिये मनोयोग देना ग्रनुप्रेक्षा है इसके भी चार रूप हैं, जैसे कि— + १ एकत्वानुप्रेक्षा - "इस ससार मे न कोई मेरा है-न मैं किसी का हु, मैं तो अकेला हू" इस तरह आत्मा के एकत्व एव सहायपन की भावना करना एकत्व - अनुप्रेक्षा है । इस से ग्रात्मा को यह अनुभूति हो जाती है कि जब मेरा कोई है ही नही और न मैं किसी का हूं, शरीर भी मेरा नही है तव ममत्व किस पर करू ? ममत्व ही मोह और दुख का मूल कारण है। मोह, ग्रासक्ति और इच्छा इन सब से मुक्त होने में ही सुख है । इस तरह की विचारधारा ही आत्मा को मोह- सागर से पार उतारती है । 1 at २. प्रनित्यानुप्रेक्षा - संसार मे सभी दृश्यमान पदार्थ परिवर्तनशील है, यह शरीर भी अनेक विघ्न-बाधाश्रो का, रोगो एव 1 १८२ ] [ योग एक चिन्तन ·
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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