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________________ चारिया अभिव्यक्त करती हैं कि साधक के प्रति वत्सलता का होना अत्यावश्यक है। जब साधक मे परमार्थ इण्टि. जाग उठती. है तभी वत्सलता, विनीतता एवं प्रीति आदि का उद्भव हो जाता है । अत इन दोनो, सामाचारियो का पालन होने पर ही गणव्यवस्था ठीक चल सकती है। ७ इच्छाकार सामाचारी-बडा साधु छोटे साधु से और छोटा साधु बड़े साधु से यदि कोई काम कराना चाहे तो उसे इच्छाकार का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात् यदि आपकी इच्छा हो तो मेरा यह काम आप कर दे। इस तरह परस्पर एक दूसरे से सहयोग लिया और दिया जाता है, किन्तु सहयोग भी. बल प्रेरित न होकर इच्छा-प्रेरित होना चाहिए। सामान्य विधि के अनुसार बल-प्रयोग सर्वथा वर्जित है, किन्तु विशेप विधि मे आज्ञा एव वल का प्रयोग भी व्यवहार मे किया जा सकता है। जो काम या सहयोग प्रसन्नता एव इच्छा से किया जाता है वह पुण्यानुवधी पुण्य का और निर्जरा दोनो का कारण होता है। अनिच्छा से किया हुआ कार्य कर्म-वध का ही कारण होता है, अत दूसरे की इच्छा होने पर ही उसको काम लेना चाहिए। हुक्म और बल-प्रयोग तो राजनीति मे ही सफल हो सकता है धर्म-नीति मे नही । . ८ मिथ्याकार सामाचारो-साधक के द्वारा कही न कही भूल का हो जाना भी स्वाभाविक है। जब कभी साधु को अपनी भूल का ज्ञान हो जाए तभी "मिच्छामि दुक्कड" का उच्चारण करना चाहिए। जो अपने द्वारा हुई भूल को मिथ्या मान कर उससे निवृत्त होता है, उसी का दुष्कृत मिथ्या होता है। जब साधक अपने साधुत्वं की मर्यादा से स्खलित हो जाए या उसमे योग . एक चिन्तन ] [ १६३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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