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________________ कपाय व्यत्सर्ग माया-पुत्सर्ग लाख हुआ है पान-व्युत्सर्ग है । द्रव्य-व्युत्सर्ग का अस्तित्व अधिक से अधिक सातवे गणस्थान तक पाया जाता है। क्षपक-श्रेणि प्रारोहण करनेवाला साधक आठवें गुणस्थान से भाव-व्युत्सर्ग का प्रारम्भ करता है और चौदहवे गुणस्थान मे उसकी पूर्णता -हो जाती है। यथाख्यात-चारित्र, वीतरागता और शुक्ल-ध्यान इनसे भाव-व्युत्सर्ग स्वत ही हो जाता है । भावव्युत्सर्ग के अनेक भेद हैं-कषायो की सत्ता को क्षीण करना कपाय-व्युत्सर्ग कहलाता है । इसके भी चार भेद हैं-क्रोध-व्युत्सर्ग, काम-व्युत्सर्ग माया-व्युत्सर्ग और लोभ-व्युत्सर्ग । आगमो मे जिस क्रम से चार कषायो का उल्लेख हुआ है उसी क्रम से उनका क्षय भी होता है। तीसरे को छोडकर छठे गुणस्थान तक आयु का वध होता है। कभी-कभी जीव छठे गुणस्थान मे प्रायु का वध प्रारम्भ करके सातवे गुणस्थान में उस वध की पूर्णता कर लेता है। जिन कर्म-प्रकृतियो की विद्यमानता मे आयु-कर्म का वध होता है, उन कर्म-प्रकृतियो का क्षय हो जाने पर प्रायु-कर्म का भी वध नही होता । जव नरक श्रादि किसी भी भव की आयु का वध होता ही नहीं, तब ससार-व्युत्सर्ग स्वतः ही हो जाता है । ससारव्युत्सर्ग चार प्रकार का होता है-~नैरयिक ससार-व्युत्सर्ग, तिर्यच ससार-व्यत्सर्ग, मनुष्य-ससार-व्युत्सर्ग और देव-संसार-व्युत्सर्ग। कषाय और नो कषाय से जीव प्रायु का बंध करता है, कषायव्युत्सर्ग के अनन्तर गायु का बध होता ही नहीं है। प्रायु-बध के विना ससार-व्युत्सर्ग हो जाता है, अर्थात् ससार से जीव का सम्बन्ध नही रह जाता । यद्यपि दसवे गुणस्थान तक लोभ कषाय की मात्रा पाई जाती है, तथापि अत्यन्त मद होने से उस के द्वारा योग . एक चिन्तन ] [१५१
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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