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________________ प्रकार का प्रागार नही रखा जाता, चाहे कितनी. ही विघ्नवावाए आए, किन्तु साधक प्रत्याख्यान को भग नहीं करता, उसे अनागार प्रत्याख्यान कहते हैं। अनाभोग और सहसाकार तो उसमे भी होते हैं, क्योकि विना उपयोग के अगुली आदि मुह मे पड़ जाने से यदि आगार न हो तो पच्चक्खाण के भग होने की संभावना रहती है। ७. परिमाणकृत-प्रत्याख्यान-जिम प्रत्यास्यान में दत्तियो की संख्या, कवलो की सख्या, घरो की संख्या, भिक्षा का परिमाण या भोज्य एव पेय द्रव्यो की मर्यादा की जाती है वह परिमाणकृत-प्रत्याख्यान कहलाता है। - r ८ . निरवशेष, प्रत्याख्यान-काल-मर्यादा रखकर चतुर्विधं आहार का सर्वथा परित्याग करना, सथारा करना, किसी भी पाहार या आगार की छूट न रखना निरवशेष प्रत्याख्यान कहलाता है। - - - - - - - सकेत-प्रत्याख्यान-नवकारसी, पोरसी, उपवास आदि का नियत समय पूर्ण हो जाने के बाद तपश्चर्या करने वाला साधक जब तक अंशन आदि का सेवन न करे तव तक पच्चक्खाण में रहने के लिए उसे किसी तरह का सकेतकर लेना चाहिए, उसके लिए ग्रेथकारो ने अनेक सकेत बतलाए हैं, जैसे कि अंगुष्ठ, मुष्ठी, 'ग्रयो, गृह, स्वेद, उच्छवास, स्तिबुक, दीपके इत्यादि अनेक तरह के संकेत हो सकते हैं । इनमे से किसी भी सकेत को मानकर खाने'पीने का पच्चक्खाण किया जा सकता है। जैसे कि- अंगूठो - जब तक दाए हाथ की अमुक अगुली मे यह अंगूठी रहेगी, तब तक खाने-पीने का पच्चक्खाण किया जाता है। .[ योग . एक चिन्तन 7 . 4
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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