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________________ . . . thentimentation २१. आत्म-दोषोपसंहार .. अलौकिक शक्तियो की रचना मनुष्य अपने वास्तविक अनुभव के आधार पर अपने मन से करता है, वह स्वय ही अपने मन मे भीति और प्रीति का आरोप कर लिया करता है। इस सदर्भ मे साधक के दो प्रयत्न होते है--एक उन्हे-मना लेने का और दूसरा उन्हे आधीन करने का। मनाने की क्रिया को माराधना 'और वश मे करने की क्रिया की साधना कहते हैं। मानव-जीवन 'मे कर्म-जन्य जितने भी दोप हैं, प्राधिना या साधना द्वारा उनका उपसंहार या सकोच करना'ही 'यात्म-दोष उपसहार" है। जैसे अग्नि में ईधन न डालने से उसका विस्तार स्वत ही रुक जाता है, वैसे ही अपने मे रहे हुए अवगुणो भूलो या दोषो का उपसहार करने का अभ्यास नित्यति करते रहने पर नवीन कर्मबन्ध स्वत ही रुक जाता है। एक बार नवीन कर्म-बन्धन के 'रुक जाने पर, वह पुन, प्रारम्भ न हो जाए, इसके लिये साधक को निरन्तर यत्नशील रहना अनिवार्य है। -- - जीवन मे यदि कोई अवगुण या. दोष प्रतीत हो तो उसको निकालने का शीघ्र ही कोई न कोई उपक्रम करना चाहिए। यदि किसी यान, का एक पहिया-पचर हो जाए और तीन पहिए सर्वथा ठीक भी हो तो वह न्यान आगे नहीं बढ़ सकता । इसी प्रकार योग • एक चिन्तन ] [ १०३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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