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________________ 44444 १८. प्रणिधि जिन धर्म ने विद्या और धर्म-साधना मे जाति, वर्ण, · 1 क्षेत्र श्रौर काल का कोई बचन स्वीकार नही किया । अहिंसा, सयम और तप इनकी सामूहिक प्राराधना को ही जिन धर्म कहा जाता है । जिस मानव का हृदय विशाल है, निरीक्षण सूक्ष्म है, निश्चय दृढ है, मानव के उत्थान मे जिसका विश्वास है तथा मानवसमाज को ऊंचा उठाने की तीव्र भावना है, वही जैन है । प्रणिधि भी जैन संस्कृति का पारिभाषिक शब्द है चित्त की एकाग्रता धर्मध्यान, समाधि, शुद्धभक्ति, समर्पण किसी कर्म के फल का त्याग, इन सब का ग्रन्तर्भाव प्रणिधि शब्द मे हो जाता है । सात्विक मन, सुबुद्धि, विवेक और श्रद्धा ये सब मिलकर अन्तर्ज्योति के रूप है । अन्तर्ज्योति की विद्यमानता मे ही प्रणिधि की साधना हो सकती है । प्रणिधि के दो रूप है- बहिरंग और अन्तरग । बहिरग प्रणिधि आनन्द को और अन्तरंग प्रणिधि शान्ति को जन्म देती है । श्रानन्द बहा ले जाता है और शान्ति किनारे पर लगा देती है | ग्रानन्द मे रस व मद है और शान्ति मे समाधान व प्राध्यात्मिक सुख है । ग्रानन्द चचल है और शान्ति अचल है । श्रानन्द इन्द्रियो को उत्तेजित करता है और शान्ति उन्हे अपने उदर मे समा लेती है | श्रानन्द श्रात्मा को असयम की ओर भी ले जासकता है, परन्तु ' " ८४ ] [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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