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________________ सर्वतोमुखो व्यक्तित्व क्योंकि हड्डी, मांस और रक्त में कोई फर्क नहीं है। वह तो प्रत्येक जाति में समान ही होता है । वास्तव में मनुष्य वातावरण से बनता है, और वातावरण से ही विगड़ता भी है। जन्म से ही किसी की पवित्रता और उच्चता मानना बहुत बड़ी भूल है। इस विपय में कवि जी के स्पष्ट विचार इस प्रकार से हैं "जैन-धर्म की परम्परा में यह देखा जाता है, कि एक हरिजन भी सन्त बन सकता है, साधु हो सकता है, और वह आगे का ऊँचे सेऊंचा रास्ता भी पार कर सकता है। अनेक हरिजनों के मोक्ष प्राप्त करने की कथाएँ हमारे यहाँ आज भी मौजूद हैं। हजारों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य साधु वनकर भी जीवन की पवित्रता को कायम नहीं रख सके और पथ-भ्रष्ट हो गए। फिर जाति सम्पन्नता का अर्थ ही क्या रहा ? इसके विपरीत हरिकेशी एवं मेतार्य जैसे हरिजन भी अपने पावन जीवन से महान् बन गए, पूज्य हो गए। अतः जातिवाद न शास्त्र की बात है और न परम्परा की ही। वह तो स्वार्थ-रत लोगों की मनः कल्पना की एक कल्पित वस्तु है।" कवि जी किसी भी प्रकार के जातिवाद में विश्वास नहीं रखते। उनका कहना है, कि गुणों की पूजा होनी चाहिए, किसी भी जातिविशेष की नहीं। जातिवाद विषमता का प्रसार करता है। मानव मानव में भेद-रेखा डालता है। अग्रवाल, प्रोसवाल और खंडेलवाल आदि सभी भेद मानव द्वारा परिकल्पित हैं-शास्त्रसम्मत नहीं। जैन परम्परा के किसी भी शास्त्र से जातिवाद का समर्थन नहीं होता । किसी भी प्रकार के जातिगत भेद को कवि जी स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टि में सब मानव एक हैं, उनमें किसी प्रकार का जाति-भेद नहीं है। - समाज में पुत्र को भाग्यशाली और पुत्री को भाग्य हीना समझा जाता है । परन्तु यह मान्यता अज्ञान का ही परिणाम है । कुछ लोग कहते हैं, कि पुण्य के उदय से लड़का मिलता है, और पाप के उदय से ‘लड़की मिलती है। इस प्रकार बहुत-से जड़-बुद्धि के लोग अपनी सन्तान में भी भेद-बुद्धि पैदा कर देते हैं। यह भी समाज की एक प्रकार की विषमता ही है। इस विषमता से समाज में और परिवार में बहुत से अनर्थ हो जाते हैं।
SR No.010597
Book TitleAmarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1962
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Literature
File Size10 MB
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