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________________ संसारदावानल। १९ कमल-मालाओं से जो शोभायमान हैं, और भक्त लोगों की कामनाएँ जिन के प्रभाव से पूर्ण होती हैं, ऐसे सुन्दर और प्रभावशाली जिनेश्वर के चरणों को मैं अत्यन्त श्रद्धा पूर्वक नमन करता हूँ॥२॥ बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामं । जीवाहिंसाविरललहरीसंगमागाहदेहं ॥ चूलावेलं गुरुगममणीसंकुलं दूरपारं। सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ॥३॥ अन्वयार्थ—'बोधागा,' ज्ञान से अगाध-गम्भीर, 'मुपदपदवीनीरपूराभिरामं' सुन्दर पदों की रचनारूप जल-प्रवाह से मनोहर, 'जीवाहिंसाऽविरललहरीसङ्गमागाहदेहं' जीवदया-रूप निरन्तर तरङ्गों के कारण कठिनाई से प्रवेश करने योग्य, 'चूलाबेलं' चूलिका रूप तटवाले 'गुरुगममणीसंकुलं' बड़े बड़े मालावा रूप रत्नों से व्याप्त [ और ] 'दूरपारं' जिसका पार पाना कठिन है [ ऐसे ] 'सारं' श्रेष्ठ 'वीरागमजलनिधि' श्रीमहावीर के आगम-रूप समुद्र की [ मैं ] 'सादरं' आदर-पूर्वक 'साधु' अच्छी तरह 'सेवे' सेवा करता हूँ ॥३॥ ___ भावार्थ-[ आगम-स्तुति ] इस श्लोक के द्वारा समुद्र के साथ समानता दिखा कर आगम की स्तुति की गई है। __ जैसे समुद्र गहरा होता है वैसे जैनागम भी अपरिमित ज्ञान वाला होने के कारण गहरा है । जल की प्रचुरता के कारण जिस प्रकार समुद्र सुहावना मालूम होता है वैसे ही
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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