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________________ सामाइयवयजुत्तो । १९ भावार्थ---- मैं सामायिकत्रत ग्रहण करता हूँ । राग-द्वेष का अभाव या ज्ञान-दर्शन- चारित्र का लाभ ही सामायिक है, इस लिये पाप वाले व्यापारों का मैं त्याग करता हूँ । जब तक मैं इस नियम का पालन करता रहूँ तब तक मन वचन और शरीर इन तीन साधनों से पाप व्यापार को न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा || निवृत्त होता हूँ, अपने हे खामिन् ! पूर्व-कृत पाप से मैं हृदय में उसे बुरा समझता हूँ और गुरु के सामने उसकी निन्दा करता हूँ | इस प्रकार मैं अपने आत्मा को पाप --क्रिया से छुड़ाता हूँ । १० - सामायिक पारने का सूत्र | * सामाइयवयजुत्तो, जाव मणे होई नियमसंजुत्ता । छिन्नड़ असुहं कम्मं, सामाइय जत्तिआ वारा || १ || अन्वयार्थ – [ श्रावक ] 'जाव' जब तक सामाइयवयजुत्तो' सामायिकत्रत सहित [ तथा ] 'मणे मनके नियमसंजुत्तो' नियम- सहित 'होई' हो [ और ] 'जत्तिया' जितनी वारा' बार ‘सामाइय’ सामायिकव्रत [ लेवे तब तक और उतनी बार ! 'असुहं कम्मं अशुभ कर्म 'छिन्न' काटता है ॥ १ ॥ C भावार्थ - मनको नियम में - कब्जे में रखकर जब तक और जितनी बार सामायिक व्रत लिया जाता है तब तक और * सामायिकत्रतयुक्तो यावन्मनसि भवति नियमसंयुक्तः । छिनत्ति अशुभं कर्म सामायिकं यावतो वारान् ॥ १ ॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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