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________________ परिशिष्ट । तुह जिण सरणरसायणेण लहु हंति पुणण्णव, जयधनंतरि पास मह बि तुह रोगहरो भव ॥ ३ ॥ विज्जाजोइसमंततेतसिद्धिउ अपयत्तिण, भुवणभुउ अट्ठविह सिद्धि सिज्झहि तुह नामिण । तुह नामिण अपवित्तओ वि जण होइ पवित्तउ, तं तिहुअणकल्लाणकोस तुह पास निरुत्तउ ॥४॥ खुद्दपउत्तइ मंततंतजंताइ विसुत्तइ, चरयिरगरलगहुग्गखग्गरिउवग्ग विगंजइ । दुत्थियसत्थअगत्थवत्थ नित्थारइ दय करि, दुरियइ हरउ स पास देउ दुरियकरिकेमरि ॥५॥ जइ तुह रूविण किण वि पेयपाइण वेलवियउ, तुवि जाणउ जिण पास तुम्हि हउं अंगकिरिउ । इय मह इच्छिउ जं न होइ सा तुह ओहावणु, रक्खंतह नियाकति णेय जुज्जइ अवहीरणु ॥२९॥ एह महारिय जत्त देव इह न्हवण महुसउ, जं अंगलियगुणगहण तुम्ह मुगिजणआणसिद्धउ । एम पसीह सुपासनाह थंभणयपुरविय, इय मुगिवरु सिरिअभयदेउ ,विन्नवइ अणिदिय ॥३०॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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