SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चैत्य-वन्दन-स्तवनादि । २२७ कोई अनेरु जग नहीं, ए तीरथ तोले । एम श्रीमुख हरि आगले, श्रीसीमन्धर बोले ॥३॥ वि०॥ जे सघला तीरथ कयां, जाना फल कहीये । तेहथी ए गिरि भेटतां,शतगणुं फल लहीये ॥४॥ वि०॥ जनम सफल होय तेहनो, जे ए गिरि वन्दे । 'सुजशविजय संपद लहे, ते नर चिर नन्दे ॥५॥ वि०॥ जात्रा नवाणुं करीए, विमल गिरि जात्रा नवाणुं करीए । • पूर्व नवाणुं वार शेत्रजा गिरि , रिखव जिणंद समोसरीए।१।वि०। कोडि सहस भव-पातक तूटे, शेत्रजा स्हामोडग भरीए ।२। वि०॥ सात छट्टदोय अहम तपस्या, करी चढ़ीये गिरिवरीये ।३। वि०। पुंडरीक पद जयीये हरखे, अध्यवसाय शुभ धरीये ॥४॥वि०॥ पापी अभवीन नजरे देखे, हिंसक पण उद्धरीये॥५॥ वि०॥ भूमिसंथारो ने नारी तणो संग, दूर थकी परिहरीये॥६॥वि०॥ सचित्त परिहारी ने एकल आहारी, गुरु साथे पद चरीये।वि०। पडिक्कमणा दोय विधिशुं करीये, पाप-पडल विखरीये।८वि०। कलिकाले ए तीरथ मोहोडें, प्रवहण जिम भर दरीये।९। वि०॥ उत्तम ए गिरिवर सेवंता, 'पद्म' कहे भव तरीये॥१०॥ वि०॥ गिरिराज दर्श पावे, जग पुण्यवंत प्राणी ॥ रिखम देव पूजा करीये, संचित कर्म हरीये ।
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy