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चैत्य-वन्दन-स्तवनादि ।
२९६ चउद सुपन निर्मल लही, सत्यकी राणी मात । कुन्थु अर जिन अन्तरे, श्रीसीमन्धर जात ॥३॥ अनुक्रमे प्रभु जनमीया, वली यौवन पावे । मात पिता हरखे करी, रुक्मिणी परणावे ॥४॥ भोगवी सुख संसारना, संजम मन लावे । मुनिसुव्रत नमि अन्तरे, दीक्षा प्रभु पावे ॥५॥ घाती कर्मनो क्षय करी, पाम्या केवल नाण । रिखभ लंछने शोभता, सर्व भावना जाण ॥६॥ चोरासी जस गणधरा, मुनिवर एकसो कोड । त्रण भुवनमां जोवतां, नहीं कोई एहनी जोड ॥७॥ दस लाख कह्या केवली, प्रभुजीनो परिवार । एक समय त्रण कालना, जाणे सर्व विचार ॥८॥ उदय पेढाल जिनान्तरे ए, थाशे जिनवर सिद्ध । 'जशविजय' गुरु प्रणमतां, शुभ वंछित फल लीध ॥९॥
श्रीसीमन्धर वीतराग, त्रिभुवन उपकारी । श्रीश्रेयांस पिता कुले, बहु शोभा तुम्हारी ॥१॥ धन धन माता सत्यकी, जिन जायो जयकारी । वृषभ लंछन विराजमान, वन्दे नर-नारी ॥२॥ धनुष पांचसो देहडी, सोहे सोवन वान । 'कीर्तिविजय उवझायनो 'विनय' धरे तुम ध्यान ॥३॥