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________________ १९८ प्रतिक्रमण सूत्र । 3 [यदि स्थापनाचार्य हो तो इस के पढ़ने की जरूरत नहीं है 1] पीछे 'इच्छामि खम०, इरियावहियं, तस्स उत्तरी, अन्नत्थ ऊससि - द्वारा गुरु की, इस प्रकार दो स्थापनाएँ की जाती हैं। पहली स्थापना का आलम्बन, देववन्दन आदि क्रियाओं के समय और दूसरी स्थापना का आलम्बन, कायोत्सर्ग आदि अन्य क्रियाओं के समय लिया जाता है । १ - जो क्रियाएँ बड़ों के संमुख की जाती हैं वे मर्यादा व स्थिरभावपूर्वक हो सकती हैं; इसी लिये सामायिक आदि क्रियाएँ गुरु के सामने ही की जाती हैं। गुरु के अभाव में स्थापनाचार्य के संमुख भी ये क्रियाएँ की आती हैं। जैसे तीर्थङ्कर के अभाव में उन की प्रतिमा आदि आलम्बनभूत है, वैसे ही गुरु के अभाव में स्थापनाचार्य भी । गुरु के संमुख जिस मर्यादा और भाव-भक्ति से क्रियाएँ की जाती हैं, उसी मर्यादा व भाव-भक्ति को गुरुस्थानीय स्थापनाचार्य के संमुख बनाये रखना, यह समझ तथा दृढ़ता की पूरी कसोटी है । स्थापनाचार्य के अभाव में पुस्तक, जपमाला आदि जो ज्ञान-ध्यान के उपकरण हैं, उन की भी स्थापना की जाती है I २ – खमासमण देने का उद्देश्य, गुरु के प्रति अपना विनय-भाव प्रकट करना है, जो सब तरह से उचित ही है । ३- 'इरियावहियं ' पढ़ने के पहले उस का आदेश माँगा जाता है । आदेश माँगना क्या है, एक विनय का प्रगट करना है । और विनय धर्म का मूल है | प्रत्येक धार्मिक प्रवृत्ति की सफलता के लिये भाव-शुद्धि जरूरी है और वह किये हुए पापों का पछितावा किये विना हो नहीं सकती । इसी लिये 'इरियावहियं' से पाप की आलोचना की जाती है । ४ -- इस सूत्र के द्वारा काउस्सग्ग का उद्देश्य बतलाया जाता है । ५ - जो शारीरिक क्रियाएँ स्वाभाविक हैं अर्थात् जिन का रोकना संभव नहीं या जिन के रोकने से शान्ति के बदले अशान्ति के होने की अधिक संभावना, है उन क्रियाओं के द्वारा काउस्सग्ग भङ्ग न होने का भाव इस सूत्र किया जाता है । से प्रकट
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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