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________________ १६८ प्रतिक्रमण सूत्र । 'विवेग' विवेक--सच-झूठ की पहिचान, 'संवर' 'कर्म-बन्ध को रोकना, 'भासासमिई' भाषा-समिति, 'छजीवकरुणा' छह प्रकार के नावों पर करुणा, 'धम्मिअजणसंसम्गो' धार्मिक जन का सङ्ग, 'करणदमो' इन्द्रियों का दमन, 'चरणपरिणामो' चारित्र का परिणाम, 'संघोवरि बहुमाणो' संघ के ऊपर बहुमान, 'पुत्थयलिहणं' पुस्तक लिखना-लिखाना, 'य' और 'पभावणा तित्थे' तीर्थ- शासन की प्रभावना, 'ए' यह सब ‘सड्ढाण' श्रावकों को 'निच्चं' रोज 'सुगुरूवएसेणं' सुगुरु के उपदेश से 'किच्चं' करना चाहिये ॥२-५॥ भावार्थ-तीर्थकर की आज्ञा को मानना चाहिये; मिथ्यात्व को त्यागना चाहिये; सम्यक्त्व को धारण करना चाहिये और नित्यप्रति सामायिक आदि छह प्रकार का आवश्यक करने में उद्यम करना चाहिये ॥१॥ अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व दिनों में पौषधवत लेना, सुपात्र-दान देना, ब्रह्मचर्य पालना, तप करना, शुद्ध भाव रखना, स्वाध्याय करना, नमस्कार मन्त्र जपना, परोपकार करना, यतनाउपयोग रखना, जिनेश्वर की स्तुति तथा पूजा करना, गुरु की स्तुति करना, समय पर मदद दे कर साधर्मिक भाइयों की भक्ति करना, सब तरह के व्यवहार को शुद्ध रखना, रथ-यात्रा निका; लना, तीर्थ यात्रा करना, उपशम, विवेक, तथा संवर धारण करना, बोलने में विवेक रखना, पृथिवीकाय आदि छहों प्रकार के जीवों पर दया रखना, धार्मिक मनुष्य का सङ्ग करना, इन्द्रियों
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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