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________________ अपरिमित होने के कारण शब्दों के द्वारा किसी तरह नहीं बताया जा सकता | इस लिये इस अपेक्षा से जीव का स्वरूप अनिर्वचनीय है । इस बात को जैसे अन्य दर्शनों में "निर्विकल्प"; शब्द से या "नेतिनति" शब्द से कहा है वैसे ही जैनदर्शन * "यता वाचो निवर्तन्ते, न यत्र मनसो गतिः ।। शुद्धानुभवसंवेद्यं, तद्रूपं परमात्मनः ॥" द्वितीय, श्लोक ४ ॥ + "निरालम्बं निराकारं, निर्विकल्पं निरामयम् । श्रात्मनः परमं ज्याति,-निरुपाधि निरञ्जनम् ॥” प्रथम, ३ ॥ “धावन्तोऽपि नया नके, ताम्वरूपं स्पृशान्ति न । समुद्रा इव कल्लोलैः, कृतप्रतिनिवृत्तयः ।।" द्वि०, ८॥ "शब्दापरत तद्प,-बोधकमयपद्धतिः। निर्विकल्पं तु तद्पं,-गम्यं नानुभवं विना ॥" द्वि०, ६ ॥ "प्रतव्यावृत्तितो भिन्नं, सिद्धान्ताः कथयन्ति तम् । वस्तुतस्तु न निर्वाच्य, तस्य रूपं कथंचन ॥ द्वि०, १६ ॥ [ श्रीयशोविजय-उपाध्याय-कृत परमज्योतिःपञ्चविंशतिका] "अप्राप्यैव निवर्तन्ते, वचोधीभिः सहैव तु । निर्गुणत्वास्क्रिभावा,-द्विशेषाणामभावतः ॥" - [श्रीशङ्कराचार्यकृत-उपदेशसाहस्री नान्यदन्यत्प्रकरण श्लो० ३१] अर्थात्-शुद्ध जीव निर्गुण अक्रिय और अविशेष होने से न बुद्धिग्राह्य है और न वचन-प्रतिपाद्य है। “स एषनेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्यो न हि शीर्यतेऽ सगो न हि सज्यतेऽसितो न व्यथते न रिष्यत्यभयं वै जनक प्राप्तोसीति होवाच याज्ञवल्क्यः ।" [बृहदारण्यक, अध्याय ४, ब्राह्मण २, सूत्र ४] .
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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