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________________ १२६ प्रतिक्रमण सूत्र । उसको खमाता हूँ अर्थात् क्षमा करता हूँ। वैसे ही मैं ने भी किसी का कुछ अपराध किया हो तो वह मुझे क्षमा करे । मेरी सब जावों के साथ मित्रता है, किसी के साथ शत्रता नहीं है ॥४९॥ एवमहं आलोइअ, निंदिय गरहिअ दुगंछिउं सम्म । तिविहेण पडिकंतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥५०॥ अन्वयार्थ-'एवं' इस प्रकार 'अहं' मैं 'सम्म अच्छी तरह 'आलोइअ' आलोचना कर के 'निंदिय' निन्दा कर के 'गरहिअ' गर्दा करके और 'दुगंछिउँ जुगुप्सा कर के 'तिविहेण' तीन प्रकार-मन, वचन और शरीर से 'पडिक्कंतो' निवृत्त हो कर 'चउव्वीसं' चौबीस 'जिणे' जिनेश्वरों को 'वंदामि' वन्दन करता हूँ ॥५०॥ भावार्थ-मैं ने पापों की अच्छी तरह आलोचना, निन्दा, गर्दा और जुगुप्सा की; इस तरह त्रिविध प्रतिक्रमण करके अब मैं अन्त में फिर से चौबीस जिनेश्वरों को वन्दन करता हूँ ॥५०॥ ---- - ---- ३५-अब्भुट्ठियो [गुरुक्षामणा] सूत्र । 1 इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुठिओऽहं, अभिंतरदेवसिखामेडं। + एवमहमालोच्य, निन्दित्वा गर्हित्वा जुगुप्सित्वा सम्यक् । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तो, वन्दे जिनाँश्चतुर्विंशतिम् ॥५०॥ + इच्छाकारेण संदिशथ भगवन् ! अभ्युत्थितोऽहमाभ्यन्तरदेवसिकं क्षमयितुम् ।
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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