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________________ वंदित्त सूत्र । १०३ का त्याग कर के बाकी के कामों का परिमाण कर लेना, यह उपभोग-परिभोग-परिमाणरूप दूसरा गुणवत अर्थात् सातवाँ व्रत है। ऊपर की चार गाथाओं में से पहली गाथा में मद्य, मांस आदि वस्तुओं के सेवन मात्र की और पुष्प, फल, सुगन्धि द्रव्य आदि पदार्थों का परिमाण से ज्यादा उपभोग परिभोग करने की आलोचना की गई है । दूसरी गाथा में सावद्य आहार का त्यांग करने वाले को जो अतिचार लगते हैं उनकी आलोचना है । वे अतिचार इस प्रकार हैं: (१) सचित्त वस्तु का सर्वथा त्याग कर के उसका सेवन करना या जो परिमाण नियत किया हो उस से अधिक लेना, (२) सचित्त से लगी हुई अचित्त वस्तु का, जैसेः-वृक्ष से लगे हुए गोंद तथा बीज सहित पके हुए फल का या सचित्त बीज वाले खजूर, आम आदि का आहार करना, (३) अपक्क आहार लेना, (४) दुष्पक्व-अधपका आहार लेना और (५) जिनमें खाने का भाग कम और फेंकने का अधिक हो ऐसी तुच्छ वनम्पतियों का आहार करना । __ तीसरी और चौथी गाथा में पन्द्रह कर्मादान जो बहुत सावध होने के कारण श्रावक के लिये त्यागने योग्य हैं उनका वर्णन है । वे कर्मादान ये हैं:
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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