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________________ प्रतिक्रमण सूत्र । इतने योजन तक गमन करूँगा, इस से अधिक नहीं । यह दिक् परिमाण रूप प्रथम गुण-व्रत अर्थात् छठा व्रत है। इस में लगने वाले अतिचारों की इस गाथा में आलोचना है। वे आतिचार इस प्रकार हैं: (१) ऊच-दिशा में जितनी दूर तक जाने का नियम किया हो उससे आगे जाना, (२) अघो-दिशा में जितनी दूर जाने का नियम हो उससे आगे जाना, (३) तिरछी दिशा में जाने के लिये जितना क्षेत्र निश्चित किया हो उससे दूर जाना, (४) एक तरफ के नियमित क्षेत्र-प्रमाण को घटा कर दूसरी तरफ उतना बढ़ा लेना और वहाँ तक चले जाना, जैसे पूर्व और पश्चिम में सौ सौ कोस से दूर न जाने का नियम कर के आवश्यकता पड़ने पर पूर्व में नव्वे कोस की मर्यादा रख कर पश्चिम में एक सौ दस कोस तक चले जाना और (५) प्रत्येक दिशा में जाने के लिये जितना परिमाण निश्चित किया हो उसे भुला देना ॥१९॥ [सातवें व्रत के अतिचारों की आलोचना] * मज्जम्मि अ मंसम्मि अ, पुफे अफले अगंधमल्ले अ। उवभोगपरीभोगे, बीयम्मि गुणव्वए निंदे ॥२०॥ - * मद्ये च मांसे च, पुष्पे च फले च गन्धमाल्ये च । उपभोगपरिभोगयो,-र्द्वितीये गुण-व्रते निन्दामि ॥२०॥
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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