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________________ वंदित्त सूत्र । 'ज' जो 'दोसा' दोष [ लगे ] 'त' उनकी 'चेव' अवश्य 'निंदे' निन्दा करता हूँ ॥७॥ भावार्थ-अपने लिये या पर के लिये या दोनों के लिये कुछ पकाने, पकवाने में छह काय की विराधना होने से जो दोष लगते हैं उनकी इस गाथा में आलोचना है ॥७॥ [सामान्यरूप से बारह व्रत के आतिचारों की आलोचना ] है पंचण्हमगुच्चयाणं, गुणव्वयाणं च तिण्हमइआरे । सिक्वाणं च चडहं, पडिक्कमे देसि सव्वं ।।८।। अन्वयार्थ----‘पंचण्हं' पाँच 'अणुब्बयाणं' अणुव्रतों के 'तिण्हं' तीन 'गुणव्बयाण' गुणवतों के 'च' और 'चउण्हं' चार 'सिक्खाणं' शिक्षात्रतों के 'अइआरे' अतिचारों से [ जो कुछ] 'देसिअं' दैनिक [ दूषण लगा ] 'सव्वं' उस सब से 'पडिक्कमे' निवृत्त होता हूँ ॥८॥ भावार्थ-पाँच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत, इस प्रकार बारह व्रतों के तथा तप-संलेखना आदि के अतिचारों को सेवन करने से जो दृषण लगता है उसकी इस गाथा में आलोचना की गई है ॥८॥ + पञ्चानामणुव्रतानां, गुणवताना च त्रयाणानतिचारान् । शिक्षाणां च चतुणी, प्रतिक्रामामि देवासिकं सर्वम् ॥८॥ १ . श्रावक के पहले पाँच व्रत महाव्रत की अपेक्षा छोटे होने के कारण 'अणुव्रत ' कहे जाते हैं; ये 'देश मूलगुणरूप' हैं । अणुव्रतों के लिये गुणकारक अर्थात् पुष्टिकारक होने के कारण छठे आदि तीन व्रत 'गुणव्रत' कहलाते हैं। और शिक्षा की तरह बार बार सेवन करने योग्य होने के कारण नववें आदि
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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