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________________ भगवान् आदि को वन्दन। ६१ २५-भगवान् आदि को वन्दन। * भगवानहं, आचार्यह, उपाध्यायह, सर्वसाधुहं । अर्थ-मगवान् को, आचार्य को, उपाध्याय को, और अन्य सब साधुओं को नमस्कार हो । २६-देवसिअ पडिकमणे ठाउं। इच्छाकारेण संदिसह भगवं देवसिअपडिकमणे ठाउं ? इच्छं। _ सव्यस्रूवि देवसिअ दुचितिअ दुन्मासिअ दुचिट्ठिा मिच्छा मि दुकडं । अन्वयार्थ–'देवसिम' दिवस-सम्बन्धी 'सव्वस्सवि' सभी 'मिति' बुर चिंतन 'दुव्मासिस' बुरे भाषण और 'दुच्चिट्टि बुरी चेष्टा से 'मि' मुझे [जो) 'दुकडं' पाप लगा वह] 'मिच्छा' मिथ्या हो। भावार्थ-दिवस में मैंने बुरे विचार से, बुरे भाषण से और बुरे कामों से जो पाप वांधा वह निष्फल हो। * भगवद्भयः, आचार्येभ्यः, उपाध्यायेभ्यः, सर्वसाधुभ्यः । १-'भगवानह' आदि चारों पदों में जो 'ह' शब्द है वह अपभ्रंश भाषा के नियमानुसार उही विभक्ति का बहुवचन है और चौथी विमकिने अर्थ में आया है। ___ + सर्वस्याऽऽपि देवसिकस्य दुचिन्तितस्य दुर्भाषितस्य दुवेधितस्य मिथ्या मम दुष्कृतम्। -
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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