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________________ लोकभाषाओंमें दृष्टिगत नहीं है । फिर भी जैन धर्मने भारतीयसंस्कृतिके नाते बहुत कुछ अर्पण किया है। सचमुच मानवजीवनकी सार्थकता भी इसीमें समाई हुई है । जोकि प्रत्येक मानव के लिए उपादेय और आवश्यक है । विश्वसिद्धान्तके समान इसका प्रचार करनेकी भी पूरी जरूरत है। जब अखिल विश्व के विद्वान् इतने ऊंचे स्पष्ट अभिप्राय दे रहे हैं तब हमारे पास विशेष समझाने के लिए क्या कुछ शेष रह गया है ? _ विश्वजगत्में एनसाईकलोपीडिया ब्रिटानिका नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है । हमारे प्रिय आगमत्रय भी उसी पद्धतिके अनुसार महनीयता और महानता प्राप्त होंगे। एनसाईकलोपीडिया ब्रिटानिका ग्रंथ १२० वर्ष पहिले बना है । अबतक कई परिवर्तनोंके साथ २ उसकी १४ आवृत्तिएँ निकली हैं । प्रकाशनकी दृष्टि से यह ३५ बार प्रकाशित हुआ है । प्रत्येक संस्करण के प्रकाशन के समय कमसे कम १० लाखसे ५० लाख तक प्रतिएँ प्रकाशित हुई हैं । कुछ दानियोंके प्रोत्साहन मिलनेसे हम भी इसी परिपाटी के अनुसार आगमत्रयको सारे संसारके योग्य और सुकोमल हाथोंमें पहुँचाना चाहते हैं । जिससे दो अरब मानवप्रजा लाभ उठा सके। ऐसी आशा ही नहीं बल्कि हमारा पूर्ण दृढ़ विश्वास है । मात्र आप तो प्रस्तुत आगम पाकर उनका स्वाध्याय करके हमारे हौसले को बढ़ाएँ। इस संस्थाकी स्थापना सन् १८०४ ई. में होनेके पश्चात् इसने बाईबिलकी ३४५०००,००० प्रतियाँ प्रसिद्ध करके वितरण की हैं और अब तक ५६६ भाषाओं में बाई बिल प्रसिद्ध किया है। बाईबिलका अनुवाद अंग्रेजीसाम्राज्यकी ३६६ भाषाओंमें हो चुका है। भारतवर्ष में १०२ भाषाओंमें वह अब तक छप चुकी है । इस संस्थाके पुस्तकोंका मूल्य लागत पर न लियाजाकर लोगोंकी शक्तिके अनुसार लिया जाता है। गोस्पेलकी प्रकाशित बाईबिल आपको भारतवर्षमें आधे पैसेमें मिलेगी और चीनमें एक पेनीकी ६ प्रति मिलेंगी । तथा जहां पैसेकी व्यवस्था न हो वहां यथासमय जो वस्तु मिल सकती हो उसी वस्तुको लेकर पुस्तक दिया जाता है । कोरियामें पुस्तकके भारसे दुगना अनाज लेकर बाईविल दिया जाता है। तथा किसीको अधिक आवश्यकता बतानेपर एक आलू लेकर बाई बिलकी एक प्रति दी जाती है। भारतवर्षमें तो लाखों प्रतिएँ मुफ़्त भी दी जाती हैं। नोट-जैनधर्मके स्तंभ दानवीर उदार लखपति करोड़पतियोंने भी क्या कभी इस प्रचार की ओर ध्यान दिया है ? भगवान् महावीर की प्रत्येक जैनको देन है और उसे भगवान् की वाणीकी उन्नतिसे ही पूरा किया जा सकता है।
SR No.010591
Book TitleSuttagame 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year1954
Total Pages1300
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_aupapatik, agam_rajprashniya, agam_jivajivabhigam, agam_pragyapana, agam_suryapragnapti, agam_chandrapragnapti, agam_jambudwipapragnapti, & agam_ni
File Size93 MB
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