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________________ णमोऽत्यु णं समणस्स भगवओ णायपुत्तमहावीरस्स संपादकीय जैनधर्म क्या है ?—'जि' जये धातुसे 'इणसिजिदीकुस्यविभ्यो नक्' नक् प्रत्ययान्त होकर 'जिन' शब्दसे 'जैन' बना है अर्थात् 'रागादिशत्रून् जयतीति जिनः' आन्तरिक रागद्वेष और कर्मादि शत्रुओंका विजेता 'जिन' कहलाता है और उसके अनुगामी जैन हैं। जिनके 'जगत्प्रभु' जगत्के प्रभु, 'सर्वज्ञ' सर्व पदार्थों के ज्ञाता, 'त्रिकालविद्' तीनों कालकी अवस्थाओंके जानने वाले, 'देवाधिदेव' देवोंके सर्वोपरि देव आदि गुणवाचक बहुतसे विशेषण हैं । इसके अतिरिक्त 'साधु साध्वी श्रावक श्राविका' इन चारों तीर्थोंके संस्थापक होने से 'तीर्थकर' या 'तीर्थकर' कहलाते हैं । केवलज्ञान होनेसे 'केवली' और 'अर्हन्' भी हैं । इनका प्रतिपादन किया हुआ धर्म जैनधर्म कहलाता है। जैनधर्म अनादि है, इसकी प्राचीनताके प्रमाण 'तुलनात्मक अध्ययन' के ऐतिहासिक प्रकरणमें देखें। जैनधर्मकी मान्यता-इस दृश्यमान सृष्टिमें जो भी वस्तु आदि इन्द्रियों द्वारा अथवा अतींद्रिय ज्ञानसे जानी जाती हैं या दृष्टिगोचर होती हैं, उनके दो विभाग हैं जड़ और चेतन; जड़में जीव नहीं है और चेतन जीव है । जीवोंकी गणना संख्यात और असंख्यात से नहीं बल्के अनन्तसे है । जीव भी दो प्रकारके हैं-एक कर्मसे मुक्त अर्थात् सिद्ध, दूसरे संसारी । इन संसारी जीवोंके अनेक रीतिसे अनेक भेद हैं । सवमें समान जीवत्व होने पर भी जड़ पदार्थके साथ उनका किसी अंशमें संबंध होनेके कारण वे नए २ रूपमें दिखते हैं। उन संसारी जीवोंके चार भाग हैं-नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । नारकीय जीव अपने पापोंका फल अधोलोकमें और देव अपने पुण्यका फल स्वर्गलोकमें भोगते हैं। इस मर्त्यलोकमें मनुष्य पर्याय सबसे श्रेष्ठ है । तिर्यंच पंचेंद्रियके पांच भेद हैंजलचर (पानी में रहने वाले मच्छ कच्छादि ), स्थलचर ( भूमिपर चलने वाले गाय भैस बकरी आदि ), खेचर ( आकाशमें उड़ने वाले पक्षी कबूतर आदि), उरपुर (छातीसे रेंग कर चलने वाले सर्पादि), भुजपुर (भुजासे चलने वाले नेवला ऊंदर आदि)। ये सब चलने फिरने वाले त्रस जीव ( जंगम) कहलाते हैं । इनके अतिरिक्त पृथ्वी पानी अग्नि वायु और वनस्पतिके जीव स्थावर हैं । ये इतने सूक्ष्म हैं १ जीवपजवा णं भंते ! किं संखिज्जा असंखिज्जा अणंता ? गोयमा ! नो संखिज्जा, नो असंखिज्जा, अणंता । 'पण्णवणा' पांचवां पद, ३०९ पृष्ठ ।
SR No.010591
Book TitleSuttagame 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year1954
Total Pages1300
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_aupapatik, agam_rajprashniya, agam_jivajivabhigam, agam_pragyapana, agam_suryapragnapti, agam_chandrapragnapti, agam_jambudwipapragnapti, & agam_ni
File Size93 MB
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