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________________ प्रस्तावना इस अनादि अनंत संसारमें आत्माने अनन्त वार जन्म मरण किए है परन्तु अपने स्वरूपको भूलकर विभाव-परपरिणतिमें रच पचकर कर्मवश होकर अनन्तानन्त दुःख सहन करता रहा है । यद्यपि सुखको पानेके लिए अनेक प्रकारके पापड़ वेलता है लेकिन अवतक उसे वह सच्चा और टिकाऊ सुख नही मिल सका है कि जिसके द्वारा संसृतिके सब दुःखोंसे नितान्त छुटकारा पालेता, परन्तु धर्म पुरुषार्थके विना वह सुख कहां? 'धर्मात्सुखं' धर्मसे सुख मिलता है, सुखके पानेमें धर्म कारणभूत है, तव कारणके विना कार्य कैसे संपन्न हो सकता है। साथ ही यह भी स्मरण रहे कि धर्मपुरुषार्थ ही मोक्षका वास्तविक मार्ग है जिसके मुख्य तीन प्रकार सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित है, वे है सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चरित्र। शरीर और मनके दुःखोंसे छुटकारा दिलाने वाला यही रत्नत्रय समर्थ साधन है। इस रत्नत्रयमें 'पढमं नाणं तओ दया के अनुसार सम्यग्ज्ञानकी प्रधानता है । मोहरूपी महा अंधकारके समूहको नष्ट करनेमें ज्ञान सूर्यके समान है । इष्ट वस्तुको प्राप्त करानेमें ज्ञान कल्पवृक्ष है । दुर्जेय कर्मरूपी हाथीको पछाड़नेमें ज्ञान सिंह जैसा है। ज्ञानके अभावमें मुंहपर दो आंखे होनेपर भी वह अन्धेके सदृश है । ज्ञानके भी पांच प्रकार है जिनमें 'श्रुतज्ञान' बड़े ही महत्वकी वस्तु और परोपकारी है। केवली भगवान्का केवलज्ञान उनके स्वयंके लिए लाभ दायक है औरोके लिए नहीं वे भी श्रुतज्ञानके द्वारा ही जगत्के असंख्य भव्यजीवोको प्रतिवोध देकर महान् उपकार करते है। लेकिन श्रुतज्ञानकी भी दो वीथियाँ है जिन्हें सम्यकश्रुत और मिथ्याश्रुत कहते हैं। सम्यक्श्रुतके भी अनेक भेद है जिनमें वर्तमान समयमें केवल ३२ आगम ही उपलब्ध है और जो १४ पूर्वीय श्रुतज्ञान महान् समुद्रके समान था उसका काल दोषसे इस समय विच्छेद हो चुका है। यह हमारे मंदभाग्य ही का कारण है, तो भी ये वार्तमानिक आगम आजके सत्साहित्यके मूल स्रोतके समान है । इन्हीं स्रोतो द्वारा हमारा साहित्य अमर विभूति प्राप्त है । साहित्य वह वस्तु है जो प्रत्येक धर्म और राष्ट्रका प्राणभूत होता है । जिसका अपना निजीसाहित्य न हो वह धर्म मृतकके समान है। जैनसाहित्यमें आगमोंका स्थान-यो तो जैनसाहित्य अन्य साहित्योकी अपेक्षा अत्यन्त विशाल है। कोई ऐसा विषय नहीं है जिसपर जैनसाहित्यकों की लेखनी न उठी हो, परन्तु उसमें भी आगमोंका स्थान सर्वोच्च है । या यो कहिए
SR No.010590
Book TitleSuttagame 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Maharaj
PublisherSutragam Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages1314
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_acharang, agam_sutrakritang, agam_sthanang, agam_samvayang, agam_bhagwati, agam_gyatadharmkatha, agam_upasakdasha, agam_antkrutdasha, & agam_anutta
File Size89 MB
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