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________________ सहायता को जा पहुंचे। इस घटना के बाद प्रियदर्शी अशोक के समय भी हमको बौद्ध ग्रन्थो से यह पता लगता है कि अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री सिहमित्रा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये विमान द्वारा ही सिंहल द्वीप गए थे। इस प्रकार उस प्राचीन काल मे अब से अढाई सहस्र वर्ष पूर्व तक हमारे देश मे विमानो तथा आकाशगामिनी विद्या का अस्तित्व था। किन्तु विमानविद्या का अस्तित्व उन दिनो उत्तरी भारत मे न होकर केवल दक्षिणी भारत तथा सिहल द्वीप मे ही था। संभव है कि उन दिनो आजकल की अपेक्षा अन्य भी ऐसी अनेक विद्याप्रो का अस्तित्व हो जिनका आज लोप हो चुका है। वीणा-वादन-कला-ऐसी विद्याप्रो मे वीणावादन की एक अभूतपूर्व कला तथा सिद्धाजन की कला का उल्लेख हमको तत्कालीन साहित्य मे मिलता है। वीणावादन' की जैसी उच्चतम-कुशलता हमको उस काल के राजा उदयन मे देखने को मिलती है, वैसी कुशलता का सम्पादन इस विद्या मे आज तक भी. नही किया जा सका है। सिद्धांजन कला-उन दिनो एक ऐसा सिद्धाजन तैयार किया जाता था, जिसको आखो मे लगाने वाला आप स्वय तो अदृश्य हो कर सब कही जा सकता था, किन्तु उस को कोई नहीं देख सकता था। सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार के राज्यकाल में विद्युच्चर नामक चोर राजकुमार इस विद्या मे पारगत था। जैन ग्रन्थ परिशिष्ट पर्व से हमको इस विद्या के अस्तित्व का पता चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भी मिलता है। उसमे चन्द्रगुप्त के सम्बन्ध में एक कहानी आती है कि कोई व्यक्ति बे रोजगार तो था, किन्तु उसके पास सिद्धलोपाजन था । अतएव वह अपना अजन लगाकर नित्य चन्द्रगुप्त के अन्त पुर में जाकर उसकी थाली में भोजन करने लगा। इस घटना से चन्द्रगुप्त भूखा रहने लगा और कुछ दुर्बल भी हो गया। उसकी इस दशा को देखकर चाणक्य को बड़ी चिन्ता हुई। उसने राजा के दुर्बल होने के कारणो का पता लगाया, किन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी उसको असली कारण का पता न चला। अत में उसको सदेह हो ही गया कि कोई व्यक्ति सिद्धलोपाजन का प्रयोग क्रके राजमहल में पाता है। प्रत. उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के भोजन कर चुकने पर
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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