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________________ भगवान महावीर स्वामी को केवल झान, छ काय के जीव तथा छ. लेश्याएं उनके लिये पहेलियाँ थी। बहुन कुछ सोच, विचार के पश्चात् वह ब्राह्मण-विद्यार्थी से बोले "यह कैसा अनर्गल श्लोक है । चल इसके सम्बन्ध में मैं तेरे गुरु से ही वार्तालाप करूगा।" "जैसी आपकी इच्छा।" यह कहकर ब्राह्मण-विद्यार्थी उनके उठने की प्रतीक्षा करने लगा। इन्द्रभूति अपने अग्निभूति तथा वायुभूति नामक दो लघुभ्राताओ तथा पांचसौ शिष्यो सहित भगवान् महावीर के समवशरण की ओर चले । भगवान् के समीप पहुच कर जो उन्होने उनकी परमवीतराग मुद्रा को देखा तो उनका हृदय स्वयं ही नम्रीभूत हो गया। वह उनकी योगावस्था की प्रात्मविभूति को देखकर ऐसे प्रभावित हुए कि उन्होने उनको साष्टांग प्रणाम कर उनसे निवेदन किया "भगवन् ! मै आपसे इस श्लोक का अर्थ जानना चाहता हूं।" इस पर भगवान् बोले "वत्स | इस ससार में जितनी भी वस्तुए हैं वे या तो सजीव है या निर्जीव है। जीव अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य सहित है, किन्तु यह अनादि काल से कर्म के बन्धन में पड़ा हुन्मा अपने को भूला हुमा है। यदि यह अपने स्वरूप को ठीक-ठीक पहचान कर ज्ञानपूर्वक तप करे तो यह इसी जन्म में समस्त कर्मों को नष्ट करके अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य को प्राप्त कर सकता है। यह जीवतत्त्व का वर्णन है। इन्द्रभूति-भगवन् । जीवतत्त्व के अतिरिक्त अजीवतत्त्व कौन से हैं ? भगवान् अजीवतत्त्व पांच हैपुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल । यही छ. द्रव्य है। जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाये जावें उसे पुद्गल कहते हैं। संसार के सभी दृश्य पदार्थ इसी पुद्गल के बने हुए हैं। प्राणियो का शरीर भी पुद्गल का ही बना हुआ है । इस जीव को शुभ और अशुभ कर्मों का फल देने वाली कर्मवर्गलाए भी पुद्गल की ही बनी होती हैं। २६५
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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