SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रेणिक बिम्बसार समान सात्वना दी थी। इतना ही नहीं, उसने मुझे घर लाकर अपनी पत्नी को भी मुझे पुत्री के समान ही रखने का आदेश दिया। किन्तु मेरे दुर्भाग्य का तो अभी आरभ था। अभी तो मुझे न जाने क्या-क्या दुख देखने बदे थे ? रथवान की स्त्री शीघ्र ही मुझ से ईर्ष्या करने लगी। उसने अपने पति को आज्ञा दी कि वह मुझ को बाजार मे दासी के समान बेच कर मेरे मूल्य स्वरूप बीस लाख स्वर्ण मुद्रा उसको लाकर दे । यद्यपि रथवान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, किन्तु मुझ से उसका यह कष्ट नही देखा गया। मैने उससे यह अनुरोध किया कि वह मेरी उस नई माता की आज्ञा का पालन करे । अन्त मे हम दोनो बाजार में आए । मैने अपने को बेचने के लिए स्वय ही आवाज लगानी आरम्भ की। मुझे उस समय अतिशय वेदना हुई, जब एक वेश्या मुझको मोल लेने के लिए आग्रह करने लगी, किन्तु मैने उसके साथ जाने से साफ इन्कार कर दिया । अन्त मे एक धनावा नामक धार्मिक सेठ ने मेरे मूत्य स्वरूप वीस लाख स्वर्ण मुद्रा उस रथवान को देकर मुझे प्राप्त किया। उसने जिस समय मुझे बेटी कह कर सम्बोधित किया तो मुझे अपने पिता राजा दधिवाहन की याद हो आई । यद्यपि मुझको उस समय तो बहुत बुरा लगा, किन्तु जब मैने अपने नवीन पिता के निश्चल नेत्रो मे अहिंसा, दया, सयम तथा सन्तोष की समुज्ज्वल भावना को पाया तो मैंने अपने जीवन को एक बार फिर धन्य माना । मै सोचने लगी कि सभवत इसी प्रकार धर्म-ध्यान करते-करते अब मेरा जीवन व्यतीत हो जावेगा। किन्तु मुझे पता नही था कि दुर्भाग्य अभी तक मुझको देखकर खिलखिला कर हँस रहा है। कहा जाता है कि अनुपम स्वर्गीय सौन्दर्य किसी बडे पुण्य से मिलता है, किन्तु मुझ को तो वह सौन्दर्य सम्भवत कोई वडा भारी पाप करने के कारण उस पाप का प्रायश्चित्त करने के लिए दिया गया था। एक दिन सेठ धनावा प्यार से मेरे सुन्दर बालो पर हाथ फेरने लगे। बस यही से सेठानी मूलादेवी मेरी भयकर विरोधिनी बन गई । अतएव वह मुझ पर द्वोनभाव रख कर मुझ से मन ही मन जलने लगी। अब वह प्रतिक्षण यही सोचती रहती थी कि मै किस प्रकार चन्दनबाला को दुखी करूं । सेठ मुझ से प्राय. पूछ लिया करते थे कि मुझे उस घर मे कोई कष्ट तो नहीं है, किन्तु मै सदा यही १८६
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy