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________________ भगवान् महावीर की दीक्षा और उनको कई-कई दिन तक नगर से वापिस लोट र निराहार रहना पडता था । भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार का कठिन तपश्चरण वारह वर्ष तक किया । इस बीच में उन्होने अनेक स्थानो पर भ्रमण किया तथा अनेक स्थानो मे चातुर्मास्य किया । उनके बारह चातुर्मास्यो मे से आठ वैद्याली मे हुए थे । भगवान् जब किसी मार्ग पर चल पड़ते थे तो वह प्राण पर सकट जान कर भी उस मार्ग से कभी नही लौटने थे । एक बार वह एक स्थान को जाने लगे तो लोगो ने उनको उस मार्ग पर जाने से यह कहकर रोका “भगवन् । इस मार्ग से न जावे, उधर एक भयकर विप वाला सर्प मार्ग मे बैठा रहता है और उधर से जाने वाले किसी भी प्राणी को काटे बिना नही छोड़ता । हमने उसका नाम चण्डकौशिक रखा हुआ है ।" किन्तु भगवान् को तो शरीर का मोह नही था । वह उसी मार्ग पर बढते चले गए । अत मे क्टू उस स्थान पर पहुँच गए, जहाँ मार्ग मे चण्डकौशिक सर्प बैठा हुआ था । भगवान् ने सर्प तथा सर्प ने भगवान् को देखा । सर्प ने भगवान् को देखते ही उन पर आक्रमण किया और उनको काट खाया । किन्तु भगवान् उसके काटने पर भी निश्चल खडे रहे । मर्प आशा कर रहा था कि मेरे काटने पर सभी प्राणियो के समान यह भी मर जावेगे, किन्तु नमक न खाने वाले पर सर्प का विष असर नही करता । यद्यपि भगवान् को अपने आहार मे थोडा बहुत नमक अवश्य मिलता था, किन्तु वह इतना कम होता था कि सर्प वि को रोकने के लिये पर्याप्त था । यदि भगवान् वारह वर्ष तक बिल्कुल नमक न खाते तो उनके शरीर मे इतना विप उत्पन्न हो जाता कि उनको काटने से सर्प ही मर जाता । भगवान के शरीर पर सर्प के विप का प्रभाव लेशमात्र भी न पडा । भगवान् के इस चमत्कार को देखकर सर्प को वडा आश्चर्य हुआ । वास्तव मे वह सर्प एक शापग्रस्त जीव था । भगवान् के स्प से उसका घमंड ही चूर नही हुआ, वरन् उसको अपने पिछले जन्मो का भी स्मरण हो आया, अब उसको इस बात का बडा खेद हुआ कि उसने इतने १८३
SR No.010589
Book TitleShrenik Bimbsr
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherRigal Book Depo
Publication Year1954
Total Pages288
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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