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________________ (९१) "अनुमोदना हमारे याही वातकी ॥ मन वच कायामें गमन व्है कमायो कर्म, . धाये भ्रम जालमें कहाये हम पातकी ॥ ज्ञानके उदयते हमारी दशां ऐसी भई, जैसे भानु भासत अवस्था होत प्रातकी ॥ ९ ॥ ___ ज्ञान भान भासत प्रमाण ज्ञानवत कहे, करुणा निधान अमलान मेरा रूप है । कालसों अतीत कर्म चालसों अभीत जोग, जालसों अनीत जाकी महिमा अनूप है । मोहको विलास यह जगतको वास मैं तो, जगतसों शून्य पाप पुन्य अंध कूप है ॥ पाप किन किये कोन करे करि है सो कोन, क्रियाको विचार सुपनेकी दोर धूप है ॥ ९१ ॥ मैं यों कीनो यों करौं,अब यह मेरो काम । मनवचकायामें बसे, ये मिथ्यात परिणाम ॥ ९२॥ मनवचकाया कर्मफल, कर्मदशा जड़अंग । दरवित पुद्गल पिंडमें, भावित कर्म तरंग ॥ ९३ ॥ ताते भावित धर्मसों, कर्म स्वभाव अपूठ । कोन करावे को करे, कोसर लहें सब झूठ ॥ ९४ ॥ करणी हित हरणी सदा, मुक्ति वितरणी नांहि । गणी बंध पद्धति विषे, सनी महा दुखमांहि ॥ ९५॥ ३१ सा- करणीके धरणीमें महा मोह राजा बसे, करणी अज्ञान भाव राक्षसकी पुरी है ॥ करणी करम काया पुद्गलकी प्रति छाया, करणी प्रगट माया मिसरीकी छुरी है ॥ करणीके जालमें उरझि रह्यो चिदानंद, *करणीकी उट ज्ञानभान दुति दुरी है ॥ आचारज कहे करणीसों व्यवहारी जीव, करणी सदैव निहचे स्वरूप बुरी है ॥ ९६ ॥
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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