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________________ ( ८२) चेतन करता भोगता, मिथ्या मगन अजान । नहिं करता नहिं भोगता, निश्चै सम्यकवान ॥२६॥ ३१ सा-जैसे सांख्यमति कहे अलख अकरता है, सर्वथा प्रकार करता न होइ कवही ॥ तैसे जिनमति गुरुमुख एक पक्ष सूनि, यांहि भांति माने सो एकांत तजो अवही ॥ जोलो दुरमति तोलों करमको करता है, सुमती सदा अकरतार कह्यो सवही ॥ जाके घट ज्ञायक स्वभाव जग्यो जवहीसे, सो तो जगजालसे निरालो भयो तवही ॥ २७ ॥ . . बोद्ध क्षणिकवादी कहे, क्षणभंगुर तनु मांहि । प्रथम समय जो जीव है, द्वितिय समयमें नांहि ॥ ताते मेरे मतवि, करे करम जो कोय॥ सो न भोगवे सर्वथा, और भोगता होय ॥ २९ ॥ यह एकंत मिथ्यात पख, दूर करनके काज ।। चिद्विलास अविचल कथा, भाषे श्रीजिनराज ॥३०॥ बालपन काहू पुरुष, देखे पुरका कोय । तरुण भये फिरके लखे, कहे नगर यह सोय ॥३१॥.. जो दुहु पनमें एक थो, तो तिहि सुमरण कीय। और पुरुषको अनुभव्यो, और न जाने जीय ॥ ३२ ॥ जब यह वचन प्रगट सुन्यो, सुन्यो जैनमत शुद्ध। तव इकांतवादी पुरुष, जैन भयो प्रति बुद्ध ॥ ३३॥ . ३१ सा-एक परजाय एक समैमें विनसि जाय, दूनी पर जाय दूजे समै उपजति है ॥ ताको छल पकरिके बोध कहे समै समै
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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