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________________ ( ७४ ) उलंघे धूम धाम चहूं ओर है | सत्ताकी समाधिमें विरानि रहे सोई साहु, सत्ताते निकास और गहे सोई चोर है || २२ जामें लोक वेदनांहि थापना उच्छेद नाहि, पाप पुन्य खेद नाहि क्रिया नांहि करनी || जामें राग द्वेष नांहि जामें बंध मोक्ष नांहि, जानें प्रभु दास न आकाश नांहि धरनी ॥ नामें कुल रीत नांहि जामें हार जीत नाहि, जामें गुरु शिष्य नांहि विष नांहि भरनी || आश्रम वरण नांहि काहुका सरण नांहि, ऐसि शुद्ध सत्ताकी समाधि भूमि वरनी ॥ २३ ॥ . जाके घटं समता नहीं, ममता मगन सदीव | रमता राम न जानही, सो अपराधी जीव ॥ अपराधी मिथ्यामती, निरदे हिरदे अंध | परको माने आतमा, करे करमको बंध ॥ २५ ॥ झूठी करणी आचरे, झूठे सुखकी आस । झूठी भगती हिय धरे, झूठो प्रभुको दास ॥ २६ ॥ ३१ सा - माटी भूमि सैलकी सो संपदा वखाने निज, कर्ममें अमृत जाने ज्ञानमें जहर है | अपना न रूप गहे ओरहीसों आपा कहे, सातातो समाधि जाके असाता कहर है ॥ कोपको कृपान लिये मान मढ़ पान किये; मायाकी मयोर हिये लोभकी लहर है ॥ याही भांति चेतन अचेतनकी संगतिसों, साथसों विमुख भयो झूठमें बहर है ॥ २७ ॥ . तीन काल अतीत 'अनागत वरतमान, जगमें अखंडित प्रवाहको डहर है ॥ तासों कहे यह मेरो दिन यह मेरी घरी, यह मेरोही परोई मेरोही पहर है ॥ खेहको खजानो जोरे तासों कहे मेरा गेह, जहां वसें तासों .
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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