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नाकका अर काकका दृष्टांत देके मूढके अहंबुद्धिका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा.
रूपकी न झांक हिये करमको डांक पिये, ज्ञान दबि रह्यो मिरगांक जैसे घनमें ॥ लोचनकी ढांकसों न मानें सद्गुरु हांक, डोले मूढ रंकसों निशंक तिहूं पनमें ॥ टांक एक मांसकी डलीसी तामें तीन फांक, तीन कोसो अंक लिखि राख्यो काहूं तनमें ॥ तासों कहे नांक ताके राखवेको करे कांक, वांकसों खडग वांधि बांधि घरे मनमें ॥ २८ ॥
कुत्तेका दृष्टांत देके मूढका विषयमें मग्नपणा दिखावे हैं ॥ सवैया ३१ सा.
जैसे कोऊ कूकर क्षुधित सूके हाड़ चावे, हाड़नकी कोर चहुंओर चुमे मुखमें || गाल तालु रसनासों मुखनिको मांस फाटे, चाटे निज रुधिर मगन स्वाद सुखमें || तैसे मूढ विपयी पुरुष रति रीत ठाणे, तामें चित्त साने हित माने खेद दुःखमें ॥ देखे परतक्ष बल हानि मल मूत खानि, गहे न गिलानि पगि रहे राग ऊखमे ॥ २९ ॥
जिसकूं मोहकी विकलता नहीं ते साधु है सो कहे हैं ॥ छंद अडिल.
सदा मोहसों भिन्न, सहज चेतन कह्यो । मोह विकलता मानि मिध्यात्वी हो रह्यो || करे विकल्प अनंत, अहंमति धारिके । सो मुनि जो थिर होइ, ममत्व निवारिके ॥ ३० ॥
सम्यक्ती आत्मस्वरूपमें कैसे स्थिर होय. है ॥ सवैया ३१ सा. ....... असंख्यात लोक परमान जे मिथ्यात्व भाव, तेई व्यवहार भाव केवली उक्त है | जिन्हके मिथ्यात्व गयो सम्यक दरस भयो, ते नियत लीन