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________________ (२६) रस लियो है । जैसे मतवारो नहि जाने सिखरणि स्वाद, मुंगमें मगन . कहे गऊ दूध पियो है ॥ तैसे मिथ्यामाते जीव ज्ञानरूपी है सदीव, पग्यो पाप पुन्यसो सहन शुन्न हियो है । चेतन अचेतन दुहूकों मिश्र पिंड लखि, एकमेक माने न विवेक कछु कियो है ॥ १३ ॥ मिथ्यात्वी जीव कर्मको कर्ता माने है सो भ्रम है ।। सवैया २३ सा. जैसे महा धूपके तपतिमें तिसाये मृग, भरमसें मिथ्याजल पीवनेकों धायों है । जैसे अंधकार मांहि जेवरी निरखि नर, भरमसों डरपि सरप मानि आयो है । अपने स्वभाव जैसे सागर है थिर सदा, पवन संयोगों उछरि अकुलायो है ।। तैसे जीव जड़ों अव्यापक सहज रूप, भरमसों करमको करता कहायो है ।। १४ ॥... ... ." - सम्यक्त्वी भेदज्ञानते कर्मके काका भ्रम दूर करे है .. ते ऊपर दृष्टांत ॥ संवैया ३१ सा.. . जैसे राजहंसके बदनके सपरसत, देखिये प्रगट न्यारो क्षीर न्यारो नीर है ॥ तैसे समकितीके सुदृष्टिमें सहन रूप, न्यारो जीव न्यारो कर्म न्यारोही शरीर है ॥'जव शुद्ध चेतनके अनुभौ अभ्यासें तव, भासे आप अचल न दूनो और सीर है । पूरव करम उदै आइके दिखाई देइ, करता न होइ तिन्हको तमासगीर है ॥ १५ ॥ ........... ..। ॥ अब जीव और पुद्गल एकमेक हो रहे हैं तिसको जुदा कैसे . जानना सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा... जैसे उषणोदकमें उदक स्वभाव सीत, आगकी उपणता फरस ज्ञान लखिये ॥ जैसे स्वाद व्यंजनमें दीसत विविधरूप, लोणको सुवाद खारो नीम
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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