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________________ (२१) . अब ऐसी पिछान अनुभव विना न होय, तातै अनुभव प्रशंसा कथन करे है ॥ कवित्तः . . . . . .. जव चेतन संभारि निज पौरुष, निरखें निन दृगसो निन· मर्म ॥ तव सुखरूप विमल अविनाशिक, जाने जगत शिरोमणि धर्म ॥ अनुभव करे शुद्ध चेतनको, रमे स्वभाव वमे सब कर्म ॥ इहि विधि सधे मुकतिको मारग, अरु समीप आवे शिव समं ॥ दोहा. वरणादिक रागादि जड़, रूप हमारो नांहि । एकब्रह्म नहि दूसरो, दीसे अनुभव मांहि ॥६॥ खांडो कहिये कनकको, कनक म्यान संयोग । न्यारो निरखत म्यानसों, लोह कहे सबलोंग ॥७॥ ‘वरणादिक पुद्गल दशा, धरे जीव बहु रूप। वस्तु विचारत करमसों, भिन्न एक चिद्रूप ॥८॥ . . ज्यौँ घट कहिये घीवको, घटको रूप न घीव,। .. त्यौं वरणादिक नामसों, जड़ता लहे न जीव ॥९॥ निराबाद चेतन अलख, जाने सहज सुकीव।. : अचल अनादि अनंत नित, प्रगट जगतमें जीव ॥१०॥ __ अब अनुभव विधान कथन ॥ सवैया ३१ सा. ...' रूप रसवंत मूरतीक एक पुदगल, रूपविन और यों अजीब द्रव्य द्विधा है। च्यार हैं अमूरतीक जीवभी अमूरतीक, याहीतैं अमूरतीक वस्तु ध्यान
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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