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________________ (१७) अब परमार्थकी शिक्षा कथन । सवैया ३१ सा. वनारसी कहे भैया भव्य सुनो मेरी सीख, केहूं भांति कैसेहूके ऐसा -काज कीजिये । एकहू मुहूरत मिथ्यात्वको विध्वंस होइ, ज्ञानको जगाय अंस हंस खोज लीजिये ॥ वाहीको विचार वाको ध्यान यह कौतूहल, योंही भर जनम परम रस पीजिये ॥ तजि भववासको विलास सविकाररूप, अंत करि मोहको अनंतकाल जीजिये ॥ २४॥ . अव तीर्थकरके देहकी स्तुति ॥ सवैया ३१ सा. __ जाके देह युतिसों दसो दिशा पवित्र भई, जाके तेज आगे सब तेजवंत रुके हैं । जाको रूप निरखि थकित महा रूपवंत, जाके वपु वाससों सुवास और लूके हैं । जाकी दिव्यध्वनि सुनि श्रवणको सुखहोत, जाके तन लछन अनेक आय ढूके हैं ॥ तेई जिनराज जाके कहे विवहार गुण, निश्चय निरखि शुद्ध चेतनसों चूके हैं ॥ २५ ॥ • जामें वालपनो तरुनापो वृद्धपनो नाहि, आयु परजंत महारूप महावल है ॥ विनाही यतन जाके तनमें अनेकगुण, अतिसै विराजमान काया निरमल है। जैसे विन पवन समुद्र अविचलरूप, तैसे जाको मन अरु आसन अचल है। ऐसे जिनराज जयवंत होउ जगतमें, जाके सुभगति महा मुकतिको फल है ॥ २६ ॥ . . अब जिन स्वरूप यथार्थ कथन ॥ दोहा. जिनपद नाहि शरीरको, जिनपद चेतनमांहि । जिनवर्णन कछु और है, यह जिनवर्णन नांहि ॥ २७॥ अव पुद्गल अर चेतनके भिन्न स्वभाव दृष्टांत ॥ सवैया ३१ सा. ऊंचे ऊंचे गढके कांगरे यों विराजत हैं, मानो नभ लोक गीलिवेकों
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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