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________________ (१०५) - ३१ सा-हांसीमें विषाद वसे विद्यामें विवाद वसे, कायामें भरण गुरु वर्तनमें हीनता ॥ शुचिमें गिलानि वसे प्रापतीमें हानि बसे,. में हारि सुंदर दशामें छबि छीनता ॥ रोग वसे भोगमें संयोगमें वियोग वसे, गुणमें गरव वसे सेवा मांहि दीनता ॥ और जग रीत नेती गर्मित असता तेति, साताकी सहेली है अकेली उदासीनता ॥ ९॥ जो उत्तंग चढि फिर पतन, नहि उत्तंग वह कूप । जो सुख अंतर भय वसे, सो सुख है दुखरूप ॥ १०॥ जो विलसे सुख संपदा, गये तहां दुख होय । जो धरती बहु तृणवती, जरे आशिसे सोय ॥११॥ शब्दमांहि सद्गुरु कहे, प्रगटरूप निजधर्म।। सुनत विचक्षण श्रद्दहे, मूढ न जाने मर्म ॥१२॥ ३१ सा-~-जैसे काहू नगरके वासी द्वै पुरुष भूले, तामें एक नर सुष्ट एक दुष्ट उरको ॥ दोउ फिरे पुरके समीप परे कुवटमें, काहू और पंथिककों पूछे पंथ पूरको ॥ सो तो कहे तुमारो नगर ये तुमारे ढिग, मारग दिखावे समझावे खोज पुरको ॥ एते पर सुष्ट पहचाने पै न माने दुष्ट, हिरदे प्रमाण तैसे उपदेश गुरुको ॥ १३ ॥ जैसे काहूं जंगलमें पावसकि समें पाई, कपने सुभाय महा मेघ वरखत है। आमल कषाय कटु तक्षिण मधुर क्षार, तैसा रस वाढे जहां जैसा दरखत है । तैसे ज्ञानवंत नर ज्ञानको वखान करे, रस कोउ माही है न कोउ परखत है । वोही धूनि सूनि कोउ गहे कोउ रहे सोइ, काहूको विषाद होइ कोउ हरखत है ॥ १४॥
SR No.010588
Book TitleSamaysar Natak
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages134
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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