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(५७) भातमाके धर्मसों निरालोकरि मानतो । ताको मूल कारण अशुद्ध रागभाव ताके, बासिषको शुद्ध अनुभौ अभ्यास ठानतो ॥ याही अनुक्रम पररूप सिन्न बंध त्यागि, आप मांहि अपनो सुभाव गहि आनतो । साधि शिषचालनिरबंध होहु तिहू काल, केवल विलोकि पाई लोका लोक जानतो॥९४॥
सवैया इकतीसा-जैसे कोउ हिंसक अजान महावलवान, खोदिमूल विरख उखारे गहिबाहुसों । तैसे मतिमान दर्व कर्म भावकर्म त्यागि, व्है रहै अतीत मति ज्ञानकी दसाङ्क सों ॥ याहि क्रिया अनुसार मिटे मोह अन्धकार, जगे ज्योति केवल प्रधान सवि ताहुसों । चुके न सकति सों लुके न पुद्गल मांहि, ढुके मोष थलकों रुके न फिरि काहुसों॥९५॥
इतिश्रीनारकसमयसारविपेवंधद्वारअष्टमसमाप्तः ।
६ अध्याय मोक्षद्वार। दोहा-बंधद्वार पूरन भयो, जो दुख दोष निदान ।
अब बरनों संक्षेप सों, मोक्षद्वार सुख खान ॥ ९६ ॥ सवैया इकतीसा-भेद ज्ञान अरासों दुफारा करै ज्ञानी जीव, आतम करमधारा भिन्न २ चरचै । अनुभौ अभ्यास लहै परम धरम गहै, करम भरमको खजानो खोलि खरचै॥ योंही मोख मुख धावै केवल निकट आवै, पूरन समाधि