________________
(१४) सवैया इकतीसा-उंचे उंचे गढके कंगुरे यों विराजत हैं, मानो नभ लोक लीलवेकों दांत दियो है । सोहे चिहोंउर उपबनकी सघनताई, घेरा करि मानो भूमि लोक घेरिलि. यो है ॥ गहरी गंभीर खाईताकी उपमा वनाई, नीचो करि आनन पताल जल पियो है । ऐसो है नगर यामें नृपको न अंगकोउ, योंही चिदानंदसों शरीर भिन्न कियोहै ॥ ७ ॥
सवैया इकतीसा-जामें लोकालोक के सुभाउ प्रतिभासे सव, जगी ज्ञान सगति विमल जैसी आरसी । दर्शन उदोत लियो अंतराय अंतकीऊ, गयो महामोह भयो परम महारसी ॥ सन्यासी सहज जोगी जोगसों उदासी जामें, प्रकृति पंचाशी लगि राहि जरिछारसी । सोहै घटमंदिर में चेतन प्रगटरूप, ऐसो जिनराज तांहि वंदतवनारसी|८०॥
कवित्त छंद-तनु चेतन विवहारएकसे,निहचे भिन्नभिन्न है दोइ । तनुस्तुती विवहार जीव थति, नियत दृष्टिमिथ्या थुति सोइ ॥ जिनसो जीव जीव सो जिनवर, तनु जिनएक न मानै कोइ । ताकारन तनकी अस्तुतिलों, जिनवर की अस्तुति नहि होइ ॥ ८१ ॥ __ सवैया तेईसा--ज्यों चिरकाल गडी वसुधा महि, भूरि महानिधि अंतर गुझी। कोउ उखारि धरै महि ऊपरि, जो दुगवंत तिन्है सबसूझी ॥ त्योंयह आतमकी अनुभूति पगी जड भाव अनादि अरूझी । नैजुगतागम साधि कही गुरु, लक्षन वेदि विचक्षन बूझी ॥ ८२ ॥
सवैया इकतीसा-जैसे कोउ जन गयो धोवी के सदन... तिन्ह, पहियो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है । धनीदेखि