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________________ २- मन:पर्यय ज्ञान १ - जुमति ( मन वन मन की बात जानना ) २-- विपुलमति (मरल व वक्र रूप दूसरे के मन की नात जानन्ग ) - निर्माण २-अयग्रह- १ --- स्थान निर्माण अंगोपांगो का योग्य स्थान में निर्माण होना ) २--- प्रमाण निर्माण ( आंगे गंगा की योग्य प्रमाण लिये रचना होना ) ૨૭ २- अधिकरण--- नायकी गरलता रूप दूसरे के १ - अर्थात्रमह | व्यक्त पदार्थ का अवग्रह ) २ -- जनाबग्रह ( अव्यक्त पदार्थ का अवग्रह ) 9 - जीवाधिकरण. २ --- अजीवाधिकरण. २-- निवर्तना- १ --- देहदुः प्रयुक्त निर्वर्तनाधिकरण ( शरीर से कुचेष्टा उत्पन्न करना ) २ -- उपकरण निर्वर्तनाधिकरण ( हिंसा के उपकरण बनाना ) २-- संयोग १ - - उपकरण संयोजना ( शीत स्पर्श रूप पुस्तकादि को गर्म
SR No.010583
Book TitleJain Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddhasen Jain Gpyaliya
PublisherSiddhasen Jain Gpyaliya
Publication Year
Total Pages78
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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