SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व स्वर प्रस्तुत अध्याय का नाम 'शीतोप्णीय है। 'शीत' अनुकूलता का परिचय-पव है, तो उज्य प्रनिकूलना का । अनुकूल और प्रतिकूल में साम्य-भाव रखना समत्वयोग है । शुक्ल और कृण दोनों पक्षों में सूर्य की भांति समरोशनी प्रसारित करने वाला ही महावीर के महापथ का पथिक है। मनोदीप की निष्कम्पता ही समत्वदर्शन है। 'मैं वर्तमान हूँ। अनीत और भविप्य में मेरा कम्पन सार्यक नहीं है । वर्तमान का अनुपश्यी ही मन की संभरणशील वृत्तियों का अनुप्रेक्षरण कर सकता है। प्राप्त क्षण को प्रेक्षा करने वाला ही दीक्षित है। साधक मंसार में प्रिय और अप्रिय को विभाजन-रेखाएँ नहीं खींचता। दो आयामों के मध्य, वायें और दायें तट के वीच प्रवहणशील होना सरित्-जल का सन्तुलन है। दो में से एक का चयन करना सन्तुलितता का अतिक्रमण है। चयनवृत्ति मन की माँ है । समत्व चयन-रहित समर्शिता है। चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता। चयन-दृष्टि ही मन की निर्मात्री है। साधना का प्रथम चरण मन के चांचल्य को समझना है। मनोवृत्तियों को पहचानना और मन की गाँठों को खोजना प्रात्म-दर्शन को पूर्व भूमिका है । मन तो रोग है। गेग को समझना और उसका निदान पाना स्वास्थ्य-लाभ का सफल चरण है। सर्वदर्शी महावीर अध्यात्म विद्या के प्रमुख अधिष्ठाता हैं। उन्होंने मन को प्रत्येक वृत्ति का अतल अध्ययन किया है। प्रस्तुत अध्याय साधकों की स्नातक कक्षा में दिया गया उनका अभिभापण है। उनके अनुसार मनोवृत्तियों का पठन-अध्ययन अप्रमत्त चेता-पुरुप ही कर सकता है। महावीर की अध्यापन-शैली अत्यन्त विशिष्ट है। वे अध्यात्म के प्रात्मद्रटा दार्शनिक हैं। वे एक के ज्ञान में अनेक का ज्ञान स्वीकार करते हैं। एक मनोवृत्ति को समग्रभाव से पढ़ना वृत्तियों के सम्पूर्ण व्याकरण को निहारना है। मन का
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy