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________________ १५२. यह न्याय [लोकनीति कहलाता है । १५३. इस संसार में जो दुःख मनुप्यों के लिए कहे गये हैं, उन दुःखों का कुशल [साधक] परिज्ञा (प्रज्ञा) पूर्वक परिहार करते हैं । १५४. इस प्रकार कर्म सर्व प्रकार से परिजात है। १५५. जो अनन्यदर्शी (प्रात्मदर्णी) है, वह अनन्य (आत्मा) में रमण करता है, जो अनन्य (आत्मा) में रमण करता है, वह अनन्यदर्णी (आत्मदर्शी) है। १५६. जैसा पुण्यात्मा के लिए कथन किया गया है, वैसा ही तुच्छ के लिए कथन किया गया है । जैसा तुच्छ के लिए कथन किया गया है, वैसा ही पुण्यात्मा के लिए कथन किया गया है। १५७. अनादर होने पर घात करना, इसे श्रेयस्कर न समझे। १५८. यह पुरुप कौन है ? किस नय (दृष्टिकोण) का है। १५६. वह वीर प्रशंसित है, जो ऊर्ध्व, अवो, तिर्यक् दिशा में आवद्ध को मुक्त करता है। १६०. वह सभी ओर से पूर्ण प्रजाचारी है। १६१. वीर-पुरुप क्षण भर भी लिप्त नहीं होता है । १६२. जो वन्ध-मोक्ष का अन्वेषक कर्म का अनुपात करता है, वह मेवावी क्षेत्रज्ञ है। १६३. कुशल-पुरुप (पूर्ण ज्ञानी) न तो वद्ध है, न मुक्त । १६४. वह आचरण करता है और आचरण नहीं भी करता । १६५. अनारब्ध/अनाचीर्ण का आचरण नहीं करता है। लोक-विजय
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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