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________________ ६८. वह समस्त शुद्ध श्राहारों को जानकर निरामगंधी/ शाकाहारी / शुद्धाहारी रूप में विचरण करे । ६. क्रय-विक्रय में अदृश्यमान / अकिंचन होता हुआ वह [ अनगार ] न तो क्रय करे, न क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का समर्थन करे । १००. वह भिक्षु कालज्ञ, बलज, मात्रज्ञ, क्षेत्रज, क्षरणज्ञ, विनयज्ञ, स्वसमय - परसमयज्ञ, भावज्ञ, परिग्रह के प्रति अमूच्छित काल का अनुष्ठाता और प्रतिज्ञ बने । १०१. वह [ राग और द्वेष ] दोनों को छेदकर मोक्षमार्गी बने । १०२. वह वस्त्र, प्रतिग्रह / पात्र, कंवल, पाद-पुछन, अवग्रह स्थान और कटासन / आसन - इनकी ही याचना करे । १०३. अनगार प्राप्त ग्राहार की मात्रा / परिमारण को समझे । जैसा उसे भगवान ने कहा है । १०४. लाभ होने पर मद न करे । १०५. अलाभ होने पर शोक न करे । १०६. बहुत प्राप्त होने पर संग्रह न करे । १०७. परिग्रह से स्वयं को दूर रखे । १०. तत्त्वद्रष्टा अन्यथा - भाव को छोड़ दे | १०६. यह मार्ग प्रार्यपुरुषों द्वारा प्रवेदित है । ११०. यथार्थ कुशल- पुरुष [ परिग्रह ] में लिप्त न हो । शस्त्र - परिज्ञा - ऐसा मैं कहता हूँ । ७५
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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