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________________ ६२. संयमी-पुरुप आदानीय (ग्राह्य) को ग्रहण करके उस स्थान में स्थित नहीं होता। अखेदन/असंयमी-पुरुप वितथ्य/असत्य को प्राप्त करके उस स्थान में स्थित होता है। ६३: तत्त्वद्रष्टा के लिए कोई उपदेश नहीं है। ६४. परन्तु अज्ञानी पुरुप स्नेह और काम में आसन्न होने से दुःख का शमन नही करता । दु:खी व्यक्ति दुःखों के चक्र में ही अनुपरिवर्तन करता है । -ऐमा मैं कहता हूँ। चतुर्थ उद्देशक ६५. तव उसके लिए रोग के उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं। ६६. जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ही सबसे पहले निन्दा करते है। बाद में वह उन स्वजनों की निन्दा करता है। ' ६७. वे तुम्हारे लिए त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं । तुम भी उनके लिए त्रारण यो शरण देने में समर्थ नहीं हो। ६८. वह प्रत्येक दुःख को शातीकारी जोनकर भोगों का ही अनुचिन्तन करता है। ६६. इस संसार में कुछ मनुप्यों के लिए भोग होते हैं । ७०. वह मन-वचन-काया के तीन योगों से उनमें अल्प या अधिक उन्मत्त होता है। ७१. वह वहाँ उपभोग के लिए गुद्ध होकर वैठता है । शस्त्र-परिक्षा
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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