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________________ तृतीय उदेशक ३८. वह अनेक वार उच्च गोत्र और अनेक वार नोच गोत्र में उत्पन्न हुआ है। ३६. न होन है, न अतिरिक्त/उच्च । इनमें से किसी की भी स्पृहा न करे । ४०. ऐसा समझ लेने पर कौन गोत्रवादी, कौन मानवादी और कौन किसमें गुद्ध ? ४१. इसलिए पंडित न हर्प करे, न क्रोध करे । ४२. प्राणियों को जरनो और उनकी शाता को पहचानो। ४३. इनको समतापूर्वक देखो, जैसे कि अंधापन, बहरापन, गूंगागन, कानापन, लूलापन, कुचड़ापन, बौनापन, कोढ़ीपन, चितकबरापन । ४४, पुरुप प्रमादपूर्वक विभिन्न प्रकार की योनियों का संवान/धारण करता है और नाना प्रकार की यातनाओं का प्रतिसंवेदन करता हैं । ४५. वह अनजान होता हुआ हत और उपहत होकर जन्म-मरण में अनुपरिवर्तन/ परिभ्रमण करता है। ४६. क्षेत्र और वस्तु में ममत्व रखने वाले कुछ मनुष्यों को जीवन अलग-अलग रूप में प्रिय है। ४७. वे रंग-बिरंगे मणि. कुण्डल और स्वर्ण के साथ स्त्रियों में परिगृद्ध होकर उन्हीं में अनुरक्त होते हैं । ४८. इनमें तप, दमन अथवा नियम दिखाई नहीं देते। ४६. पूर्ण अज्ञानी-पुरुप जीवन की कामना एवं भोगलिप्सा में मूढ़ है। इसलिए वह विपर्यास को प्राप्त होता है। शस्त्र-परिजा
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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