SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७. इस प्रकार वारम्वार मोह में प्रसन्न पुरुष न इस पार है, न उस पार । 'ही मनुष्य विमुक्त हैं, जो मनुष्य पारगामी हैं । २६. वे लोभ को प्रलोभ से परित्यक्त करते हुए प्राप्त कामों का ग्रवगाहन नहीं करते । ३०. जो लोभ को छोड़कर प्रव्रजित होता है, वह कर्म को जानता है, देखता है । ३१. जो प्रतिलेख की आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है । ३२. रात-दिन संतप्त, कालाकाल-विहारी, संयोग - अर्थी ( परिग्रही ), ग्रर्थलोमी, ठगी, दुःसाहसी, दत्तचित्त पुरुष पुनः पुनः शस्त्र / संहार करता है । २८. ३३. वह आत्मबल, वह ज्ञानिवल, वह मित्र-वल, वह प्रत्य-वल, वह देव-वल, वह राज-वल, वह चोर-वल, वह प्रतिथि-वल, वह कृपरण-बल, वह श्रमणवल के लिए इन विविध प्रकार के कार्यों से दंड-समादान / हिंसा करता है । ३४. पुरुष संप्रेक्षा [ भविष्य की लालसा ] से, भय से हिंसा करता है । स्वयं को पाप मुक्त मानता हुआ आशा से हिंसा करता है । ३५. उसे जानकर मेधावी पुरुष न तो स्वयं इन कार्यो / उद्देश्यों से हिंसा करे, न ही अन्य कार्यो से हिंसा करवाए और न ही अन्य द्वारा किये जाने वाले इन कार्यो से हिंसा करनेवाले का समर्थन करे । ३६. यह मार्ग प्रार्थी द्वारा प्रवेदित है । ३७. इसलिए कुशल - पुरुप लिप्त न हो । शस्त्र - परिज्ञा - ऐसा मैं कहता हूँ ।
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy