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________________ १८. जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ही कभी छोड़ देते हैं। बाद में वह उन स्वजनों को छोड़ देता है। १६. वे तुम्हारे लिए धारण या शरण देने में समर्थ नहीं है । तुम भी उनके लिए पारण या शरण देने में समर्थ नहीं हो। २०. हे पंडित ! तू प्रत्येक सुल एवं दुःख को जानकर, अवस्था को अनतिकान्त देखकर क्षरण को पहचान । २१. जब तक श्रोत्र-परिज्ञान पूर्ण है, जव तक नेत्र-परिज्ञान पूर्ण है, जब तक घ्राण-परिज्ञान पूर्ण है, जव तक जीम-परिज्ञान पूर्ण है, जव तक स्पर्ण-परिज्ञान पूर्ण है, २२. [तब तक] विविध प्रज्ञापूर्ण इस आत्मा के लिए सम्यक् अनुशीलन करे । -ऐसा मैं कहता हूँ। द्वितीय उद्देशक २३. जो अरति का निवर्तन करता है, वह मेधावी क्षणभर में मुक्त हो जाता है । २४. कोई मंदमति-पुरुप मोह से आवृत होकर, आज्ञा के विपरीत चलकर, परीपह-स्पृष्ट होता हुआ निवर्तन करता है २५. 'हम भविप्य में अपरिग्रही होंगे' कुछ यह विचार करके प्राप्त कामों को ग्रहण करते हैं। २६. अनाज्ञा से मुनि [मोह का] प्रतिलेख/शोधन करते हैं । शस्त्र-परिज्ञा ६१
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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