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________________ ही मुनित्व की प्रतिष्ठा है। लालसा का प्रत्याणी तो पुनः संसार का ही अाह्वान कर रहा है। स्वयं के धर्य पर सुस्थित होना अनिवार्य है। माधक को चाहिये कि वह तृण-खण्ड की भांति कामना के प्रवाह में प्रवाहित होने से स्वयं को बचाये । प्रस्तुत अध्याय साधक को उद्बुद्ध करता है शाश्वत के लिए। __ मंमार नदी-नाव का संयोग है । अतः किसके प्रति प्रामक्ति और किसके प्रति अहं-भूमिका ! योनि-योनि में निवास करने के बाद कंसा जातिमद, सम्बन्धों का कसा सम्मोहन ? जव शरीर भी अपना नहीं है, तो किमका परिग्रह और किसके प्रति पग्निह-बुद्धि ? काम-क्रीड़ा प्रात्मरंजन है या मनोरंजन ? संयम-पथ पर पांव वर्धमान होने के बाद अनंयम का प्रालिंगन-क्या यही माधक को माध्यनिष्ठा है ? जीवन स्वप्नवत् है। मारे सम्बन्ध गांचोगिक हैं। माता-पिता हमारे अवतरण में महायफ के अतिरिक्त और क्या हो सकते हैं ? पति और पत्नी विपरीत के याकर्पगण में मात्र एक प्रगाढ़ता है। बच्चे पंख लगने ही नीड़ छोड़कर उड़ने वाले पंछी हैं। बुढ़ापा यायु का बन्दीगृह है । यह मयं शरीर हाड़-मांस का पिंजरा है। मनुष्य तो निपट अकेला है। फिर धर्म-पथ से स्खलन कमा ? धर्म प्रात्मआश्रित है, शेप लोकाचार है, धूप-द-गा यांख-मिचौनी का खेल । नर्वदर्शी महावीर माधक को हर मंभावना पर पंनी दृष्टि रखे हुए हैं। कर्तव्यपथ पर चलने का संकल्प करने के वाद पांवों का मोच खाना संकल्पों का जथिल्य है । साधक को चाहिये कि वह पाठों याम अप्रमत्ता, प्रात्म-समानता, अनासक्ति, तटस्थता और निष्कामवृत्ति का पंचामृत पिये-पिलाये। इसी से प्राप्त होता है कैवल्य-लाभ, सिद्धालय का उत्तगधिकार । माधक अान्तरिक शत्रुओं को पगरत कर विजय का स्वर्ण पदक प्राप्त करता है । यह यात्म-विजय सत्यतः लोक-विजय है। सच्ची वीरता अन्य को नहीं अनन्य अपने आपको जीतने में है। देहगत और श्रात्मगत शवुयों पर विजयथी प्राप्त करने वाला ही जिन है, प्रात्म-शास्ता है, लोक-विजेता है।
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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